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________________ 203 रहस्यभावना के बाधक तत्त्व मद और मोह इन तेरह काठियों में रमता रहा। जिस संसार में सदैव जन्म-मरण का रोग लगा रहता है, आयु क्षीण होने का कोई उपाय नहीं रहता, विविध पाप और विलाप के कारण जुड़े रहते हैं, परिग्रह का विकार मिथ्या लगता रहता है, इन्द्रिय-विषय-सुख स्वप्नवत् रहा है, उस चंचल विलास में, रे मूढ़, तू अपना धर्म त्यागकर मोहित हो गया। ऐसे मोह और हर्ष-विषाद को छोड़। जो कुछ भी सम्पत्ति मिली है वह पुण्य प्रताप के कारण। पर उसके परिग्रह और मोह के कारण तूने कर्मबंध की स्थिति बढ़ा ली। जब अन्त आवेगा तो यहां से अकेले ही जाना पड़ेगा। संसार की वास्तविक स्थिति पर साधक जब चिन्तन करता है तो उसे स्पष्ट आभास हो जाता है कि यह शरीर भी अन्य पदार्थो के समान शक्ति हीन होता चला जायेगा। बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक शरीर की गिरती हुई क्रमिक अवस्था को देखकर साधक विरक्त सा हो जाता है। उसे सारा संसार नश्वर प्रतीत होने लगता है। जगजीवन को तो यह सारा संसार धन की छाया-सा दिखता है। उन्होंने एक सुन्दर रूपक में यह बात कही। पुत्र, कलत्र, मित्र, तन, सम्पत्ति आदि कर्मोदय के कारण जुड़ जाते हैं। जन्म-मरण रूपी वर्षा आती है और आश्रव रूपी-पवन से वे सब बह जाते हैं। इन्द्रियादिक विषय लहरों-सा विलीन हो जाता है, रागद्वेष रूप वक-पंक्ति बड़ी लम्बी दिखाई देती है, मोह-गहल की कठोर आज सुनाई पडती है, सुमति की प्राप्ति न होकर कुमति का संयोग हो जाता है, इससे भवसागर कैसे पार किया जा सकता है। पर जब रत्नत्रय (सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र) का प्रकाश और अनंत चतुष्टय (अनंत दर्शन-ज्ञानसुख-वीर्य) का सुख मिलने लगता है तब कवि को यह सारा संसार क्षणभंगुर लगने लगता है- जगत सबदीसत धन की छाया।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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