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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना संसरण का प्रबलतम कारण मोह और अज्ञान है जिनके कारण जीव की राग-द्वेषात्मक प्रवृत्तियां उत्पन्न होती हैं। ये प्रवृत्तियां हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह की ओर मन को दौड़ाती हैं। मन की चंचलता और वचनादि की असंयमता से शुभ अथवा कुशल कर्म भी दुःखदायी हो जाते हैं । मोह के शेष रहने पर कितना भी योगासन आदि किया जाये पर व्यक्ति का चित्त आत्म-दृष्टि की ओर नहीं दौड़ता। श्रुताभ्यास करने पर भी जाति, लाभ कुल, बल, तप, विद्या, प्रभुता और रूप इन आठ भेदों से जीव अभिमान ग्रस्त हो जाता है। फलतः विवेक जाग्रत नहीं होता और आत्मशक्ति प्रगट नहीं हो पाती। इसलिए बनारसीदास जीव पर करुणाद्र होकर कहते हैं:
देखो भई महाविकल संसारी दुखित अनादि मोह के कारन, राग द्वेष भ्रम भारी।। ___ यहीं आचार्य सोमकीर्ति का यशोधररास (सं. १५३६) देखिए जहां महारानी अपने रूपवान पति को धोखा देकर कोढ़ी के पास जाती है तो कवि को नारी चरित्र पर कुछ कहने का अवसर मिलता है । वे लिखते हैं :
नारी विसहर वेल, नर वंचेवाए धडिए, नारीय नामज मोहल नारी नरकमतो तडी ए। कुटिल पणानी खाणि, नारी नीचह गामिनी ए, सांचु न बोलि वाणि बाधिण सापिण अगिन शिखाये । (कासलीवाल, राजस्थान के जैन सन्त, पृ. ४८)
संसारी जीव को अनंतकाल तक इस संसार में खेलते-भटकते हो गया पर कभी उसे इसका पश्चात्ताप नहीं हुआ। वह जुआ, आलस, शोक, भय, विकथा, कौतुक, कोप, कृपणता, अज्ञानता भ्रम, निद्रा,