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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना निहारता है तो कभी तीर्थंकरों से प्रार्थना, विनती और उलाहने की बात करता है। कभी पश्चात्ताप करता हुआ दिखाई देता है तो कभी सत्संगति और दास्यभाव को अभिव्यक्त करता है। इन सभी भावनाओं को हिन्दी जैन कवियों ने निम्न प्रकार से अपने शब्दों में गूंथने का प्रयत्न किया है।
सर्वप्रथम हम रीतिकालीन १६वीं शताब्दी की उस काव्य धारा को देखते हैं जिसमें एक विशेष पद्धति से नायक-नायिका की श्रांगारिक चेष्टाएं वर्णित हुई हैं। चौपई फागु में अज्ञात कवि ने नारी सौन्दर्य का वर्णनकर सांसारिक विषय वासना को उद्दीपन के रूप में प्रस्तुत किया है -
करइ श्रृंगार सार गलइ हार, चरणे नेउरना झमकार, चित्रा लंकिइति कुच कठोर, पडती रसियां चित्त चकोर । पिहिरण नवरंग अनोपम चीर, गोरी चंपावन्न सरीर, तपत कंचू कसण कसमसइ, युगम पयोधर भारिल लसइ। जंघ यशाउ कदली थंभ, रूपइ जमलि न दीसि रंग, मदन मेशली हीरे जड़ी नहरि जिस्या सत कमल पाशड़ी। पद्मिनी हस्तनी चित्रणि नारि, लीलावंती रमइ मुरारि, सोल सहस बनइ मिली अनंद, रास भासि गाइ गोव्यंद ।
__ (डा० भो० साडसरा-प्राचीन फागु संग्रह पृ० ११२)
तो कवि कभी "इणि संसारि दुख भंडारी" कहकर यह कहता है कि इस सागर को वही पार कर सकता है जिसने समकित (जैनधर्म दीक्षा) स्वीकार कर लिया हो। कवि को विश्वास है कि जिनोपासना के बिना उसका उद्धार नहीं हो सकता - जग तारणु जिउ जग आधारु, जिण विणु अवरि नहीं भवपारु (मातृका चउपइ)।