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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
अनुप्रेक्षणके अर्थ में हुआ है । वेदान्त में इसी को निदिध्यासन माना है । व्याकरण में भावना को ‘व्यापार' का पर्ययार्थक कहा है। भट्ट इसी को भावकत्व अथवा साधारणीकरण के रूप में स्वीकार करते हैं।" यही रसानुभूति है जो सहृदय के हृदय में व्याप्त हो जाती है। भावना के अभाव में अभिव्यक्ति किसी भी परिस्थिति में संभव नहीं है। इसलिए कवि के लिए भावना एक साधन का काम करती है। आध्यात्मिक भाव दृष्टा रहस्य की साक्षात् भावना करता है जबकि कवि उसकी भावात्मक अनुभूति करता है। जैन साधक अध्यात्मिक कवि हुए हैं जिनमें रहस्य भावना का संचार दोनों रूपों में हुआ है। उनका स्थायी भाव वैराग्य रहा है। और वे शान्तरस के पुजारी माने जाते हैं । "
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वाद के जाल में फंसकर यह रहस्य भावना रहस्यवाद के रूप में आधुनिक साहित्य में प्रस्फुटित हुई है। इसका वास्तविक सम्बन्ध अध्यात्मविद्या से है जो आत्म परक होती है। अन्तः साक्षात्कार केन्द्रीय तत्त्व है। अनुभूति उसका साधन है। मोक्ष उसका साध्य है जहां आत्मज्ञान के माध्यम से जिन तत्त्व और अहंतत्त्व में अद्वैत भाव पैदा हो जाता है।
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जैन कवि बाद के पचड़े में नहीं रहे। वे तो रहस्य भावना तक ही सीमित रहे हैं। इसलिए हमने यहां दर्शन और काव्य की समन्वयात्मकता को आधार मना है जहां साधकों ने समरस होकर अपने भावों की अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। वे साधक पहले हैं, कवि बाद में हैं। जहां कहीं दार्शनिक कवि और साधक का रूप एक साथ भी दिखाई दे जाता है । वाद शैली का द्योतक है और भावना अनुभूति परक है। जैन कवि भावानुभूति में अधिक जुटे रहे हैं। इसलिए हमने यहां