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________________ 194 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना तान्त्रिक साधनाओं का जोर उतना अधिक नहीं हो पाया जितना अन्य साधनाओं में हुआ। ___ (४) जैन रहस्य भावना का हर पक्ष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित रूप पर आधारित है। (५) स्व-पर विवेक रूप भेदविज्ञान उसका केन्द्र है। (६) प्रत्येक विचार निश्चय और व्यवहार नय पर आधारित है। जैन और जैनेतर रहस्य भावना में अन्तर समझाने के बाद हमारे सामने जैन साधकों की एक लम्बी परम्परा आ जाती है। उनकी साधना को हम आदिकाल मध्यकाल और उत्तरकाल के रूप में विभाजित कर सकते हैं। इन कालों में जैन साधना का क्रमिक विकास भी दृष्टिगोचर होता है । इसे संक्षेप में हमने प्रस्तुत प्रबन्ध की भूमिका में उपस्थित किया है। अतः यहां इस सन्दर्भ में अधिक लिखना उपयुक्त नहीं होगा। बस, इतना कहना पर्याप्त होगा कि जैन रहस्य भावना तीर्थंकर ऋषभदेव से प्रारम्भ होकर पार्श्वनाथ और महावीर तक पहुंची, महावीर से आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, मुनि कार्तिकेय, अकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द, मुनि योगेन्दु मुनि रामसिंह, आनन्दतिलक, बनारसीदास, भगवतीदास, आनन्दघन, भूधरदास, द्यानतराय, दौलतराम आदि जैन रहस्य साधकों के माध्यम से रहस्य भावना का उत्तरोत्तर विकास होता गया। पर यह विकास अपने मूल स्वरूप से उतना अधिक दूर नहीं हुआ जितना बौद्ध साधना का विकास। यही कारण है कि जैन रहस्य साधना से जैनेतर रहस्य साधनाओं को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है। इसका तुलनात्मक अध्ययन आदिकालीन और मध्यकालीन हिन्दी साहित्य से किया जाना अभी शेष है। इस अध्ययन के बाद विश्वास है,
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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