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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना मीनो' आदि शब्दों से अभिव्यक्त किया है। सन्त सुन्दरदास ने ब्रह्म साक्षात्कार का साधन अनुभव को ही माना है। बनारसीदास के समान ही सन्त सुन्दरदास ने भी उसके आनन्द को 'अनिर्वचनीय' कहा है।" उन्होंने उसे साक्षात् ज्ञान और प्रलय की अग्नि माना है जिसमें सभी द्वैत, द्वन्द और प्रपंच विलीन हो जाते हैं।
कबीर ने उसे आप पिछाने आपै आप तथा सुन्दरदास ने 'आपहु आपहि जानै' स्वीकार किया है।" भैया भगवतीदास ने इसी को शुद्धात्मा का अनुभव कहा है। बनारसीदास ने पंचामृत मान को भी अनुभव के समक्ष तुच्छ माना है और इसलिए उन्होंने कह दिया - 'अनुभौ समान धरम कोऊ ओर न अनुभव के आधार स्तम्भ ज्ञान, श्रद्धा और समता आदि जैसे गुण होते हैं। कबीर और सुन्दरदास जैसे सन्त भी श्रद्धा की आवश्यकता पर बल देते हैं।
इस प्रकार अध्यात्म किंवा रहस्य साधना में जैन और जैनेतर साधकों ने समान रूप से स्वानुभूति की प्रकर्षता पर बल दिया है। इस अनुभूतिकाल में आत्मा को परमात्मा अथवा ब्रह्म के साथ एकाकारता की प्रतीति होने लगती है। यही समता और समरसता का भाव जागरित होता है । इसके लिए सन्तों और आचार्यों को शास्त्रों और आगमों की अपेक्षा स्वानुभूति और चिन्तनशीलता का आधार अधिक रहता है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने सन्तों के सन्दर्भ में सही लिखा है - ये तत्त्व सीधे शास्त्र से नहीं आये, वरन् शताब्दियों की अनुभूति-तुला पर तुला कर, महात्माओं के व्यावहारिक ज्ञान की कसौटी पर कसे जाकर, सत्संग और गुरु के उपदेशों से संगृहीत हुए। यह दर्शन स्वार्जित अनुभूति है। जैसे सहस्रों पुष्पों को सुगन्धितमधु की एक बूंद में समाहित है, किसी एक फूल की सुगन्धित मधु में नहीं है, उस मधु निर्माण के भ्रमर में अनेक पुण्य तीर्थो की यात्रायें सन्निविष्ट हैं। अनेक