________________
190
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना भाव रूप दो प्रकार का है। द्रव्य रूप परिणाम वह है जिसे हम जीव कहते हैं और भाव रूप परिणाम में अनन्त चतुष्टय, अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य की प्राप्ति मानी जाती है। इस प्रकार अध्यात्म से सीधा सम्बन्ध आत्मा का है।
अध्यात्म शैली का मूल उद्देश्य आत्मा को कर्मजाल से मुक्त करना है। प्रमाद के कारण व्यक्ति उपदेशादि तो देता है। पर स्वयं का हित नहीं कर पाता। वह वैसा ही रहता है जैसा दूसरों के पंकयुक्त पैरों को धोने वाला स्वयं अपने पैरों को नहीं धोता। यही बात कलाकार बनारसीदास ने अध्यात्म शैली की विपरीत रीति को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। इस अध्यात्म शैली को ज्ञाता साधक की सुदृष्टि ही समझ पाती है -
अध्यातम शैली अन्य शैली को विचार तैसो, ज्ञाता की सुदृष्टिमांहि लगे एतो अन्तरो।।
एक और रूपक के माध्यम से कविवर ने स्पष्ट किया है कि जिनवाणी को समझने के लिए सुमति और आत्मज्ञान का अनुभव आवश्यक है। सम्यक् विवेक और विचार से मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है। शुक्लध्यान प्रकट हो जाता है, और आत्मा अध्यात्म शैली के माध्यम से मोक्षरूपी प्रासाद में प्रवेश कर जाता है।
जिनवाणी दुग्ध मांहि। विजया सुमति डार, निजस्वाद कंद वृन्द चहल पहल में। 'मिथ्यासोफी' मिटि गये ज्ञान की गहल में, 'शीरनी' शुक्ल ध्यान अनहद 'नाद' तान, 'गान' गुणमान करे सुजस सहल में। 'बानारसीदास' मध्यनायक सभा समूह, अध्यात्म शैली चली मोक्ष के महल में।।