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रहस्य भावना एक विश्लेषण अनुभौ अरूप है सरूप चिदानन्द चन्द, अनुभौ अतीत आठ कर्म स्यौ अकास है।।१।।
जिस प्रकार वैदिक संस्कृति में ब्रह्मवाद अथवा आत्मवाद को अध्यात्मनिष्ठ माना है उसी प्रकार जैन संस्कृति में भी रहस्यवाद को आध्यात्मवाद के रूप में स्वीकार किया गया है। पं. आशाधर ने अपने योग विषयक ग्रन्थ के अध्यात्मरहस्य' उल्लिखित किया है। इससे यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य अध्यात्म को रहस्य मानते थे। अतः आज के रहस्यवाद को अध्यात्मवाद कहा जा सकता है। यही उसकी रहस्यभावना है जिसपर वह आधारित है।
बनारसीदास ने इस अध्यात्म या रहस्य की अभिव्यक्ति के माध्यम को अध्यात्म शैली नाम दिया। तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि जैसे साधकों ने इसी का अनुभव किया है और इसी को अपनी अभिव्यक्ति का साधन अपनाया है -
इस ही सुरस के सवादी भये ते तो सुनो, तीर्थंकर चक्रवर्ती शैली अध्यात्म की। बल वासुदेव प्रति वासुदेव विद्याधर, चारण मुनीन्द्र इन्द्र छेदी बुद्धि भ्रम की।।६१
अध्यात्मवाद का तात्पर्य है आत्म चिन्तन। आत्मा के दो भाव हैं - आगमरूप और अध्यात्मरूप। आगम का तात्पर्य है वस्तु का स्वभाव और अध्यात्म का तात्पर्य आत्मा का अधिकार अर्थात् आत्म द्रव्य। संसार में जीव के दो भाव विद्यमान रहते हैं - आगम रूप कर्म पद्धति और अध्यात्मरूप शुद्धचेतन पद्धति। कर्म पद्धति में द्रव्यरूप और भावरूप कर्म आते हैं। द्रव्यरूप कर्म पुद्गल परिणाम कहलाते हैं और भावरूप कर्मपुद्गलाकार आत्मा की अशुद्ध परिणति कहलाते हैं। शुद्ध चेतना पद्धति का तात्पर्य है शुद्धात्म परिणाम । वह भी द्रव्य रूप और