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________________ 188 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना चित्रावेली के समान है। इसका स्वाद पंचामृत भोजन के समान है। यह कर्मो का क्षय करता है और परमपद से प्रेम जोड़ता है। इसके समान अन्य धर्म नहीं है। अनुभौ चिन्तामणि रतन, अनुभव है रसकूप। अनुभौ मारग मोख को, अनुभव मोख स्वरूप।।१८।। अनुभौ के रस सो रयायन कहत जग। अनुभौ अभ्यास यह तीरथ की ठौर है।। अनुभौ की जो रसा कहावे सोई पोरसा सु। अनुभौ अघोरसासौं ऊरध की दौर है। अनुभौ की केलि यहै, कामधेनु चित्रावेली। अनुभौ को स्वाद पंच अमृत कौ कौर है। अनुभौ करम तोरै परम सौ प्रीति जोरे। अनुभौ समान न धरम कौऊ और है।।१९।। रूपचन्द पाण्डे ने इस अनुभूति को आत्म ब्रह्म की अनुभूति कहकर उसे दिव्यबोध की प्राप्ति का साधन बताया है। चेतन इसी से अनन्त दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य प्राप्त करता है और स्वतः उसका साक्षात्कारकर चिदानन्द चैतन्य का रसपान करता है - .. अनुभौ अभ्यास में निवास सुध चेतन को, अनुभौ सरूप सुध बोध को प्रकाश है। अनुभौ अपार उपरहत अनन्त ज्ञान; अनुभौ अनन्त त्याग ज्ञान सुखरास है। अनुभौ अपार सार आप ही का आप जाने, आप ही में व्याप्त दीसै जामें जड़ नास है।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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