________________
187
रहस्य भावना एक विश्लेषण साधकों ने आत्मा को केन्द्र के रूप में स्वीकार किया है। यही आत्मा जब तक संसार में जन्म-मरण का चक्कर लगाता है, तब तक उसे अविशुद्ध अथवा कर्माच्छादित कहा जाता है और जब वह कर्म से मुक्त हो जाता है तब उसे आत्मा की विशुद्ध अवस्था कहा जाता है। आत्मा की इसी विशुद्धावस्था को परमात्मा कहा गया है। परमात्म पद की प्राप्ति स्व-पर विवेक रूप भेदविज्ञान के होने पर ही होती है। भेदविज्ञान की प्राप्ति मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के स्थान पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित आचरण से हो पाती है। इस प्रकार आत्मा द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति ही जैन रहस्यभावना की अभिव्यक्ति है। आगे के अध्यायों मे हम इसी का विश्लेषण करेंगे। - यहां हम ध्यातव्य है कि रहस्यभावना भाने के लिए स्वानुभूति का होना अत्यावश्यक है। अनुभूति का अर्थ है अनुभव। बनारसीदास ने शुद्ध निश्चय, शुद्ध व्यवहारनय और आत्मानुभव को मुक्ति का मार्ग बताया है। उन्होंने अनुभव का अर्थ बताते हुए कहा है कि आत्मपदार्थ का विचार और ध्यान करने से चित्त को जो शान्ति मिलती है तथा आत्मिक रस का आस्वादन करने से जो आनन्द मिलता है, उसी को अनुभव कहा जाता है।
वस्तु विचारत ध्यावतें, मन पावै विश्राम। रस स्वादन रस ऊपजै, अनुभौ याको नाम।।८
कवि बनारसीदास ने इस अनुभव को चिन्तामणिरत्न, शान्तरस का कूप, मुक्ति का मार्ग और मुक्ति का स्वरूप माना है। इसी का विश्लेषण करते हुए आगे उन्होंने कहा है कि अनुभव के रस को जगत के ज्ञानी लोग रसायन कहते हैं। इसका आनन्द कामधेनु