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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना जैनधर्म रहस्यवादी हो नहीं सकता क्योंकि वह वेद और ईश्वर को स्वीकार नहीं करता। यही मूल में भूल है।
प्राचीन काल में जब वैदिक संस्कृति का प्राबल्य था, उस समय नास्तिक की परिभाषा वेद-निन्दक के रूप में निश्चित कर दी गई। परिभाषा के इस निर्धारण में तत्कालीन परिस्थिति का विशेष हाथ था। वेदनिन्दक अथवा ईश्वर सृष्टि का कर्ता, हर्ता, धर्ता के रूप में स्वीकार न करने वाले सम्प्रदायों में प्रमुख सम्प्रदाय थे जैन और बौद्ध। इसलिए उनको नास्तिक कह दिया। इतना ही नहीं, निरीश्वरवादी मीमांसक और सांख्य जैसे वैदिक भीनास्तिक कहे जाने लगे।
सिद्धान्ततः नास्तिक की यह परिभाषा निन्तान्त असंगत है। नास्तिक और आस्तिक की परिभाषा वस्तुतः पारलौकिक अस्तित्व की स्वीकृति और अस्वीकृति पर निर्भर करती है। आत्मा और परलोक के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला आस्तिक और उसे अस्वीकार करने वाला नास्तिक कहा जाना चाहिए था। पाणिनिसूत्र ‘अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः' (४-४-६०) से भी यह बात पुष्ट हो जाती है । जैन संस्कृति के अनुसार आत्मा अपनी विशुद्धतम अवस्था में स्वयं ही परमात्मा का रूप ग्रहण कर लेती है । दैहिक और मानसिक विकारों से वह दूर होकर परमपद को प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार यहां स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि की व्यवस्था स्वयं के कर्मो पर आधारित है। अतः जैन दर्शन की गणना नास्तिक दर्शनों में करना नितान्त असंगत है।
जैन रहस्यभावना भी श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत आती है। बौद्ध साधना ने जैन साधना से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है। जैन