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रहस्य भावना एक विश्लेषण
183 स्वरूप की तो बड़ी सुन्दर कल्पना की गयी है। यहां यज्ञ की प्रमुखता के साथ ही बहुदेवतावाद का जन्म हुआ और फिर जनमानस एक देवतावाद की ओर मुड़ गया।
उपनिषद् साहित्य में यह रहस्य भावना कुछ और अधिक गहराई के साथ अभिव्यक्त हुई है। वेदों से उपनिषदों तक की यात्रा में ब्रह्म विद्यापूर्ण रहस्यमयी और गुह्य बन चुकी थी। उसे पुत्र, शिष्य अथवा प्रशान्तचित्तवान् व्यक्ति को ही देने का निर्देश है।" जरत्कारु और याज्ञवल्क का संवाद भी हमारे कथन को पुष्ट करता है। कठोपनिषद् में आत्मा की उपलब्धि आत्मा के द्वारा ही सम्भव बताई गई है। वहां उस आत्मा को न प्रवचन से, न मेघ से और न बहुश्रुत से प्राप्त बताया गया है। तर्क से भी वह गम्य नहीं। वह तो परमेश्वर की भक्ति और स्वयं के साक्षात्कार अथवा अनुभव से ही गम्य है।" मुण्डकोपनिषद् की पराविद्या यही ब्रह्म विद्या है। यही श्रेय है। इसी को अध्यात्मनिष्ठ कहा गया है। अविद्या के प्रभाव से प्रत्येक आत्मा स्वयं को स्वतन्त्र मानता है परन्तु वस्तुतः वैदिक रहस्यवादी विचारधारा के अनुसार वे सभी ब्रह्म के ही अंश हैं। यही ब्रह्म शक्तिशाली और सनातन है।
यह ब्रह्मविद्या अविद्या से प्राप्त नहीं की जा सकती। परमात्मज्ञान से ही यह अविद्या दूर हो सकती है।" श्वेताश्वतरोपनिषद् में कैवल्य प्राप्ति की चार सीढ़ियों का निर्देशन किया गया है।५६
१. यौगिक साधनों और ध्यानयोग प्रक्रिया के माध्यम से परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होना अथवा ब्रह्म का साक्षात्कार होना।
२. ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाने पर सम्पूर्ण क्लेशों को दूर होना।