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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी-धारा का पवित्र प्रवाह अपेक्षित है। रहस्यवाद की भूमिका इन तीनों की सुन्दर संगम-स्थली है। परम सत्य या परमात्मा के आत्मसाक्षात्कार के स्वरूप का वर्णन सभी साधक एक जैसा नहीं कर सके क्योंकि वह अनादि, अनन्त और सर्वव्यापक है, और उसकी प्राप्ति के मार्ग भी अनन्त है। अतः अनेक कथनों से उसे व्यंजित किया जाना स्वाभाविक है। उनमें जैन दर्शन के स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के अनुसार किसी का भी कथन गलत नहीं कहा जा सकता। रहस्यभावना में वैभिन्य पाये जाने का यही कारण है। सम्भवतः पद्मावत में जायसी ने निम्न छन्द से इसी भावको दर्शाया है
“विधना केमारग है तेते। सरग लखत तनरौवा जेते।।"
इस वैभिन्य के होते हुए भी सभी का लक्ष्य एक ही रहा है - परम सत्य की प्राप्ति और परमात्मा से आत्मसाक्षात्कार। रहस्य भावना और रहस्यवाद की परम्परा
वैदिक रहस्यभावना - रहस्य भावना की भारतीय परम्परा वैदिक युग से प्रारम्भ होती है। इस दृष्टि से नासदीय सूवत और पुरुष सूक्त विशेष महत्त्वपूर्ण है। नासदीय सूक्त में एक ऋषि के रहस्यात्मक अनुभवों का वर्णन है। तदनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में न सत् था न असत् और न आकाश था। किसने किसके सुख के लिए आवरण डाला? तब अगाधजल भी कहां था? न मृत्यु थी अमृत। न रात्रि को पहिचाना जा सकता था, न दिन को। वह अकेला ही अपनी शक्ति से श्वासोच्छवास लेता रहा इसके परे कुछ भी न था। 'पुरुषसूक्त' में रहस्यमय ब्रह्म के