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________________ रहस्य भावना एक विश्लेषण उक्त धर्मो का मूल तत्त्व तो संसरण के कारणों को दूर कर निर्वाण की प्राप्ति करना है । यही मार्ग उन धर्मो का वास्तविक आध्यात्म मार्ग है। इसी को हम तत्तद् धर्मो का 'रहस्य' भी कह सकते हैं। रहस्यवाद और दर्शन 179 यद्यपि दर्शन की अन्तिम परिणति अध्यात्म मे होती है। पर व्यवहारतः अध्यात्म और दर्शन में अन्तर होता है। अध्यात्म अनुभूतिपरक है जबकि दर्शन बौद्धिक चेतना का दृष्टा है। पहले में तत्त्वज्ञान पर बल दिया जाता है जबकि दूसरा उसकी पद्धति और विवेचना पर घूमता रहता है । इसलिए रहस्यभावना का विस्तार विविध दार्शनिक परम्पराओं तक हो जाता है चाहे वे प्रत्यक्षवादी हो अथवा परोक्षवादी। वह एक जीवन पद्धति से जुड़ जाती है जो व्यक्ति को परमपद तक पहुंचा देती है। अतएव रहस्यभावना किंवा रहस्यवाद व्यक्ति के क्रियाकलाप में अथ से लेकर इति तक व्याप्त रहता है । रहस्यवाद का सम्बन्ध जैसा हम पहले कह चुके हैं, किसी न किसी धर्मदर्शन-विशेष से अवश्य रहेगा। ऐसा लगता है, अभी तक रहस्यवाद की व्याख्या और उसकी परिभाषा मात्र वैदिक दर्शन और संस्कृति को मानदण्ड मानकर ही की जाती रही है। ईसाई धर्म भी इस सीमा से बाहर नहीं है। इन धर्मों में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता आदि स्वीकार किया गया है और इसीलिए रहस्यवाद को उस ओर अधिक मुड़ जाना पड़ा। परन्तु जहां तक श्रमण संस्कृति और दर्शन का प्रश्न है, वहां तो इस रूप में ईश्वर का कोई अस्तित्व है ही नहीं। वहां तो आत्मा ही परमात्मपद प्राप्तकर तीर्थंकर अथवा बुद्ध बन सकता है। उसे अपने अन्धकाराच्छन्न मार्ग को प्रशस्त करने के लिए एक प्रदीप की आवश्यकता अवश्य रहती है।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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