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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
कवि वाल्मीकि भी कालान्तर में दार्शनिक बन गये । वेदों और आगमों के रहस्य का उद्घाटन करने वाले ऋषि-महर्षि भी दार्शनिक बनने से नहीं बच सके। वस्तुतः यहीं उनके जीवन्त - दर्शन का साक्षात्कार होता है और यहीं उनके कवित्व रूप का उद्घाटन भी । काव्य की भाषा में इसे हम रहस्यभावना का साधारणीकरण कह सकते हैं। परम तत्त्व की गुह्यता को समझने का इससे अधिक अच्छा और कौन सा साधन हो सकता है ?
रहस्यवाद और अध्यात्मवाद
अध्यात्म अन्तस्तत्त्व की निश्छल गतिविधि का रूपान्तर है। उसका साध्य परमात्मा का साक्षात्कार और उससे एकरूपता की प्रतीति है। यह प्रतीति किसी न किसी साधनापथ अथवा धर्म पर आधारित हुए बिना सम्भव नहीं । साधारणतः विद्वानों का यह मत है कि धर्म या सम्प्रदाय को रहस्यवाद के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता क्योंकि धर्म या सम्प्रदाय ईश्वरीय शास्त्र (Theology) के साथ जुड़ा रहता है। इसमें विशिष्ट आचार, बाह्य पूजन पद्धति, साम्प्रदायिक व्यवस्था आदि जैसी बातों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है जो रहस्यवाद के लिए उतने आवश्यक नहीं।
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पर यह मत तथ्यसंगत नहीं। प्रथम तो यह कि ईश्वरीय शास्त्र का सम्बन्ध प्रत्येक धर्म अथवा सम्प्रदाय से उस रूप में नहीं जिस रूप में वैदिक अथवा ईसाई धर्म में है। जैन और बौद्ध दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता नहीं माना गया। दूसरी बात, बाह्य पूजन पद्धति, कर्मकाण्ड आदि का सम्बन्ध भी जैनधर्म और बौद्ध धर्म के मूल रूपों में नहीं मिलता। ये तत्त्व तो श्रद्धा और भक्ति के विकास के सूचक हैं।