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________________ 177 रहस्य भावना एक विश्लेषण पृष्ठभूमि में ही सम्भव हो पाता है। दोनों के अन्तर को समझने के लिए हम दर्शन के दो भेद कर सकते हैं - आध्यात्मिक रहस्यवाद और दार्शनिक रहस्यवाद। आध्यात्मिक रहस्यवाद आचार प्रधान होता है और दार्शनिक रहस्यवाद ज्ञानप्रधान। अतः आचार और ज्ञान की समन्वयावस्था ही सच्चा अध्यात्मवाद अथवा रहस्यवाद है। इसलिए हमने अपने प्रबन्ध में जैन आचार और ज्ञान मीमांसा के माध्यम से ही रहस्यवाद को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। रहस्यवाद किसी न किसी सिद्धान्त अथवा विचार-पक्ष पर आधारित रहता है और उस विचार पक्ष का अटूट सम्बन्ध जीवनदर्शन से जुड़ा रहता है जो एक नियमित आचार और दर्शन पर प्रतिष्ठित रहता है। साधक उसी के माध्यम से रहस्य का साक्षात्कार करता है। वही रहस्य जब अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आता है तो दर्शन बन जाता है। काव्य में अनुभूति की अभिव्यक्ति का प्रयत्न किया जाता है और उस अभिव्यक्ति में स्वभावतः श्रद्धा-भक्ति का आधिक्य हो जाता है । धीरे-धीरे अन्धविश्वास, रूढ़ियां, चमत्कार, प्रतीक, मंत्र-तंत्र आदि जैसे तत्त्व उससे बढ़ने और जुड़ने लगते हैं। दूसरी ओर रहस्यभावना की प्रतिष्ठा जब तर्क पर आधारित हो जाती है तो उसका दार्शनिक पक्ष प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन को न तो जीवन से पृथक् किया जा सकता है और न अध्यात्म से। इसी प्रकार काव्य का सम्बन्ध भी दर्शन से बिल्कुल तोड़ा नहीं जा सकता। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक अध्यात्मवादी अथवा रहस्यवादी काव्य के क्षेत्र में आने पर दार्शनिक साहित्यकार हो जाता है। यहीं उसकी रहस्य भावना की अभिव्यक्ति विविध रूप से होती है। आदि
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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