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रहस्य भावना एक विश्लेषण प्रकाशन इसी अवस्था में हो पाता है । भेदविज्ञान की प्रतीति कालान्तर में दृढ़तर होती चली जाती है और आत्मा भी उसी रूप में परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था में पहुंचकर साधक अनिर्वचनीय अनुभूति का आस्वादन करता है। आत्मा की यह अवस्था शाश्वत् और चिरन्तन सुखद होती है। रहस्यवादी का यही साध्य है। शास्त्रीय परिभाषा में इसे हम 'निर्वाण' कह सकते हैं।
साध्य सदैव रहस्य की स्थिति में रहता है। सिद्ध हो जाने पर फिर वह रहस्यवादी के लिए अज्ञात अथवा रहस्य नहीं रह जाता। साधक के लिए वह भले ही रहस्य बना रहे। इसलिए तीर्थंकर, ऋषभदेव, महावीर, राम, कृष्ण आदि की परम स्थिति साध्य है। इसे हम ज्ञेय अथवा प्रमेय भी कह सकते हैं।
इस साध्य, ज्ञेय अथवा प्रमेय की प्राप्ति में जिज्ञासा मूल कारण है। जिज्ञासा ही प्रमेय अथवा रहस्य तत्त्व के अन्तस्तल तक पहुंचने का प्रयत्न करती है । तदर्थ साध्य के संदर्भ में साधक के मन में प्रश्न, प्रतिप्रश्न उठते रहते हैं। ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' इसी का सूचक है। 'नेति-नेति' के माध्यम से साधक की रहस्यभवना पवित्रतम होती जाती है और वह रहस्य के समीप पहुंचता चला जाता है। फिर एक समय वह अनिर्वचनीय स्थिति को प्राप्त कर लेता है - ‘यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह'। यह अनूभूतिपरक जिज्ञासा ही अभिव्यक्ति के क्षेत्र में काव्य बनकर उतरती है। इसी काव्य के माध्यम से सहृदय व्यक्ति साधारणीकरण प्राप्त करता है और शनैः शनैः साध्य दशा तक बढ़ता चला जाता है। अतएव इस प्रकार के काव्य में व्यक्त रहस्यभवना की गहनता और सघनता को ही यथार्थ में काव्य की विधेयावस्था का केन्द्र बिन्दु समझना चाहिए।