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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना परम गुह्य तत्त्व रूप रहस्य भावना के वास्तविक तथ्य तक पहुँचने के लिए साधक को कुछ ऐसे शाश्वत् साधनों का उपयोग करना पड़ता है जिनके माध्यम से वह चिरन्तन सत्य को समझ सके। ऐसे साधनों में आत्मा और परमात्मा के विशुद्ध स्वरूप पर चिन्तन और मनन करना विशेष महत्त्वपूर्ण है । जैनधर्म में तो इसी को केन्द्र बिन्दु के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। इसी को कुछ विस्तार से समझाने के लिए वहां समूचे तत्त्वों को दो भागों में विभाजित किया गया है जीव
और अजीव। जीव का अर्थ आत्मा है और अजीव का विशेष सम्बन्ध उन पौद्गलिक कर्मो से है जिनके कारण यह आत्मा संसार में बारम्बार जन्म ग्रहण करता रहता है। इन कर्मों का सम्बन्ध आत्मा से कैसे विमुक्त होता है, इसके लिए संवर और निर्जरा तत्त्वों को रखा गया है। आत्मा का कर्मो से सम्बन्ध जब पूर्णतः दूर हो जाता है तब उसका विशुद्ध और मूल रूप सामने आता है। इसी को मोक्ष कहा गया है।
इस प्रकार रहस्य भावना का सीधा सम्बन्ध जैन संस्कृति में उक्त सप्त तत्त्वों पर निर्भर करता है। इन सप्त तत्त्वों का विश्लेषण करते हुए दिखाई देते हैं। अध्यात्मवादी ऋषि-महिर्षयों और विद्वानआचार्यों ने रहस्यभावना की साधना में अनुभूति के साथ विपुल साहित्य का सृजन किया है जिसका उल्लेख हम यथास्थान करते गये हैं।
‘एकं हि सद्विप्राः बहुधा वदन्ति' के अनुसार एक ही परम सत्य को विविध प्रकार से अनुभव में लाते हैं और उसे अभिव्यक्त करते । हैं। उनकी रहस्यानुभूतियों का धरातल पवित्र आत्मसाधना से मण्डित रहता है। यही साधक तत्त्वदर्शी और कवि बनकर साहित्य जगत् में उतरता है। उसका काव्य भावसौन्दर्य से निखरकर स्वाभाविक भाषा