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________________ 170 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना मुक्त अवस्था में आत्मा और परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है। इसी तादात्म्य को समरस कहा गया है। जैनधर्म में आत्मा और परमात्मा का यह तादात्म्य अखंड ब्रह्म के अंश के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। वहां तो विकारों से मुक्त होकर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। इस सन्दर्भ में हम आगे के अध्यायों में विशद विवेचन करने का प्रयत्न करेंगे। परन्तु यहां इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि जैनधर्म में आत्मा के तीन स्वरूप वर्णित हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। बहिरात्मा मिथ्यादर्शन के कारण विशुद्ध नहीं हो पाता। अन्तरात्मा में विशुद्ध होने की क्षमता है पर वह विशुद्ध अभी हुआ नहीं तथा परमात्मा आत्मा का समस्त कर्मो से विमुक्त और विशुद्ध स्वरूप है। आत्मा के प्रथम दो रूपों को साधक और अन्तिम रूप को साध्य कहा जा सकता है। साधक अनुभूति करने वाला है और साध्य अनुभूति तत्त्व। ___ परमात्म स्वरूप को सकल और निष्फल के रूपमें विभाजित कियागया है। सकल वह है जिसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मो का विनाश हो चुका हो और शरीरवान् हो। जैन परिभाषा में इसे अर्हन्त अथवा अर्हत् कहा गया है। हिन्दी साहित्य में इसी को सगुण ब्रह्म कहा गया गया है। आत्मा की निष्कल अवस्था वेदनीय, आयु, नाम, और गोत्र इन चार अघातिया कर्मों का भी विनाश हो जाता है। और आत्मा निर्देही बन जाता है। इसी को हिन्दी साहित्य में निर्गुण ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। उत्तरकालीन जैन कवियों ने आत्मा के सकल और निकल अवस्था की भावविभोर होकर भक्ति प्रदर्शित की है और भक्ति भाव में प्रवाहित होकर दाम्पत्यमूलक अहेतुक प्रेम का चित्रण किया है, जिसमें आत्मा
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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