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रहस्य भावना एक विश्लेषण
169 का सर्वोत्तम उपाय आत्मानुभव मानते हैं। आत्मानुभव करने वाला साधक पुद्गल को विनाशीक मानता है। उसका समता-सुख स्वयं में प्रगट रहता है। उसे किसी भी प्रकार की दुविधा अथवा भ्रम शेष नहीं रहता। भेदविज्ञान के माध्यम से वह स्व-पर का निर्णय कर लेता है। दीपचन्द कवि भी आत्मानुभूति को मोक्ष प्राप्ति का ऐसा साधन मानते हैं जिसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान चरित्र की आराधना की जाती है। फलतः अखण्ड और अचल ज्ञान-ज्योति प्रकाशित होती है। डॉ. राधाकृष्णन ने भी इसी को रहस्यवाद कहा है। पर उन्होंने विचारात्मक अनुभूति को दर्शन का क्षेत्र तो बना दिया पर उसका भावात्मक अनुभूति से कोई सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया। अतः यहां हम उनके विचारों से सहमत नहीं हो सकेंगे। अनुभूति में भाव यद्यपि प्रधान और मूल अवश्य है पर उनका निकट सम्बन्ध विचार अथवा दर्शन से भी बना रहता है । बिना विचार और दर्शन के भावों में सघनता नहीं आ सकती।
(३) आत्मतत्त्व आध्यात्मिक साधना का केन्द्र है । संसरण का मूल कारण है- आत्म तत्त्व पर सम्यक् विचार का अभाव। आत्मा का मूल स्वरूप क्या है? और वह मोहादि विकारों से किस प्रकार जन्मान्तरों में भटकता है ? इत्यादि जैसे प्रश्नों का यहां समाधान खोजने का प्रयत्न किया जाता है।
(४) परमपद में लीन हो जाना रहस्यवाद की प्रमुख अभिव्यक्ति है। इसमें साधक आत्मा की इतनी पवित्र अवस्था तक पहुंच जाता है कि वह परमात्मा बन जाता है। आत्मा और परमात्मा का एकाकारत्व एक ऐसी अवस्था है जहां साधक समस्त दुःखों से विमुक्त होकर एक अनिर्वचनीय शाश्वत् चिदानन्द चैतन्य का रसपान करने लगता है । इसी को शास्त्रीय परिभाषा में हम निर्वाण अथवा