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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना सुख वासे से प्रतीत होने लगते हैं। इसलिए वे आदिकालीन अविद्या को सर्वप्रथम दूर करना चाहते हैं ताकि चेतना का अनुभव घट-घट में अभिव्यक्त हो सके।
कविवर द्यानतराय आत्मविभोर होकर यही कह उठे - "आतम अनुभव करना रे भाई''। यह आत्मानुभव भेदविज्ञान के बिना सम्भव नहीं होता। नव पदार्थो का ज्ञान, व्रत, तप, संयम का परिपालन तथा मिथ्यात्व का विनाश अपेक्षित है।"भैया भगवतीदास ने अनुभव को शुद्ध-अशुद्ध रूप में विभाजित करके शुद्धानुभव को उपलब्ध करने के लिए निवेदन किया है । यह शुद्धानुभव राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व तथा पर पदार्थो की संगति को त्यागने, सत्यस्वरूप को धारण करने और आत्मा (हंस) के स्वत्व को स्वीकार करने से प्राप्त होता है। इसमें वीतराग भक्ति, अप्रमाद, समाधि, विषयवासना मुक्ति, तथा षद्रव्य-ज्ञान का होना भी आवश्यक है। शुद्धानुभवी साधक आत्मा के निरंजन स्वरूप को सदैव समीप रखता है और पुण्यपाप के भेदक तत्त्व से सुपरिचित रहता है। एक स्थान पर तो भैया भगवती दास ने अनुभव का अर्थ सम्यग्ज्ञान किया है और स्पष्ट किया है कि कुछ थोड़े ही भव (जन्म-मरण) शेष रहने पर उसकी प्राप्ति होती है। जो उसे प्राप्त नहीं कर पाता वह संसार में परिभ्रमण करता रहता है।" कविवर भूधरदास आत्मानुभव की प्राप्ति के लिए आगमाभ्यास पर अधिक बल देते हैं। उसे उन्होंने एक अपूर्व कला तथा भवदाघहारी घनसार की सलाक माना है। जीवन की अल्पस्थिति और फिर द्वादशांग की अगाधता हमारे कलाप्रेमी को चिन्तित कर देती है। इसे दूर करने का उपाय उनकी दृष्टि में एक ही है - श्रुताभ्यास। यही श्रुताभ्यास आत्मा का परम चिन्तक है।" कविवर द्यानतराय भवबाधा से दूर रहने