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रहस्य भावना एक विश्लेषण
167 तात्पर्य है चिन्तन। जैन दर्शन में प्रमुखतः सात तत्त्व माने जाते हैं - जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जर और मोक्ष। व्यक्ति इन सात तत्त्वों का मनन, चिन्तन और अनुपालन करता है। साधक सम्यक् चरित्र का परिपालन करता हुआ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की आराधना करता है। यहां सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र साधन के रूप में स्वीकार किये गये हैं।
(२) रहस्यभावना की अन्यतम विशेषता है स्वानूभूति। बिना स्वयं की प्रत्यक्ष अनुभूति के साधक साध्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। इसी को शास्त्रीय परिभाषा में सम्यग्दर्शन कह सकते हैं। अनुभूति के उपरान्त ही श्रद्धा दृढतर होती चली जाती है। यह अनुभूति भावात्मक होती है और यहां भावात्मक अनुभूति ही रहस्यवाद का प्राण है।
आत्मानुभव से साधक षड्-द्रव्यों के अस्तित्व पर भलीभांति चिन्तन करता है, श्रद्धा करता है, कर्म उपाधि के मुक्त हो जाता है, दुर्गति के विषाद से दूर हो जाता है तथा उसका चित्त समता, सुधा रस से भर जाता है। अनुभूति की दामिनी शील रूप शीतल समीर के भीतर से दमकती हुई सन्तापदायक भावों को चीरकर प्रगट होती है और सहज शाश्वत् आनन्द की प्राप्ति का सन्मार्ग प्रदर्शित करती है।"
बनारसीदास के गुरु रूप पण्डित रूपचन्द का तो विश्वास है कि आत्मानुभव से सारा मोह रूप सघन अन्धेरा नष्ट हो जाता है । अनेकान्त की चिर नूतन किरणों का स्वच्छ प्रकाश फैल जाता है, सत्तारूप अनुपम अद्भुत ज्ञेयाकार विकसित हो जाता है, आनन्द कन्द अमन्द अमूर्त आत्मा में मन बस जाता है तथा उस सुख के सामने अन्य