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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना इस रहस्यवाद की धुरी के अन्वेषण में हर देश में विविध प्रयत्न किये गये हैं और उन प्रयत्नों का एक विशेष इतिहास बना हुआ है। हमारी भारत वसुन्धरा पर वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक दार्शनिकों ने इन प्रश्नों पर चिंतन-मनन किया है और उसका निष्कर्ष ग्रन्थों के पृष्ठों पर अंकित किया है। उपनिषद् काल में इस रहस्यवाद पर विशेष रूप से विचार प्रारम्भ हुआ और उसकी परिणति तत्कालीन अन्य भारतीय दर्शनों में जाग्रत हुई । यद्यपि इसका इतिहास सिन्धुघाटी में प्राप्त योगी की मूर्तियों में भी देखा जा सकता है, परन्तु जब तक उसकी लिपि का परिज्ञान नहीं होता, इस सन्दर्भ में निश्चित नहीं कहा जा सकता । मुंडकोपनिषद् के ये शब्द चिंतन की भूमिका पर बार-बार उतरते हैं जहां पर कहा गया है कि ब्रह्म न नेत्रों, से, वचनों से, न तप से
और न कर्म से गृहीत होता है । विशुद्ध प्राणी उस ब्रह्म को ज्ञान-प्रसाद से साक्षात्कार करते हैंन चक्षुषा गृह्यते, नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा । ज्ञान-प्रसादेन विशुद्ध सत्वस्ततस्तुतं पश्यते निष्कले ध्यायमानः।। ____ रहस्यभावना का यह सूत्र पालि-त्रिपिटक और प्राचीन जैनागमों में भी उपलब्ध होता है । मज्झिमनिकाय का वह सन्दर्भ जैन-रहस्यवाद की प्राचीनता की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिसमें कहा गया है कि निगण्ठ अपने पूर्व कर्मो की निर्जरा तप के माध्यम से कर रहे हैं । इस सन्दर्भ से स्पष्ट है कि जैन सिद्धांत में आत्मा के विशुद्ध रूप को प्राप्त करने का अथक प्रयत्न किया जाता था। ब्रह्मजालसुत्त में अपरान्तदिट्ठि के प्रसंग में भगवान बुद्ध ने आत्मा को अरूपी और नित्य स्वीकार किये जाने के सिद्धांत का उल्लेख किया है । इसी सुत्त में जैनसिद्धांत की दृष्टि से रहस्यवाद व अनेकान्तवाद का भी पता चलता है।