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रहस्यभावना किंवा रहस्यवाद के इस स्वरूप को किसी ने गुह्य माना और किसी ने स्वसंवेद्य स्वीकार किया । जैन संस्कृति में मूलतः इसका “स्वसंवेद्य” रूप मिलता है जबकि जैनेतर संस्कृति में गुह्य रूप का प्राचुर्य देखा जाता है। जैन सिद्धांत का हर कोना स्वयं की अनुभूति से भरा है । उसका हर पृष्ठ निजानुभव और चिदानन्द चैतन्यमय रस से आप्लावित है । अनुभूति के बाद तर्क का भी अपलाप नहीं किया गया बल्कि उसे एक विशुद्ध चिंतन के धरातल पर खड़ा कर दिया गया। भारतीय दर्शन के लिए तर्क का यह विशिष्ट स्थान निर्धारण जैन संस्कृति का अनन्य योगदान है ।
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उपस्थापना
रहस्य भावना का क्षेत्र असीम है । उस अनन्तशक्ति के स्रोत को खोजना असीम शक्ति के सामर्थ्य के बाहर है। अतः असीमता और परम विशुद्धता तक पहुंच जाना तथा चिदानन्द चैतन्यरस का पान करना साधक का मूल उद्देश्य रहता है । इसलिए रहस्यवाद किंवा दर्शन का प्रस्थान बिन्दु संसार है जहां प्रात्यक्षिक और अप्रात्यक्षिक सुखदुःख का अनुभव होता है और साधक चरम लक्ष्य रूप परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करता है । वहां पहुंचकर वह कृतकृत्य हो जाता है और अपना भवचक्र समाप्त कर लेता है । इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग ही रहस्य बना हुआ है ।
उक्त रहस्य को समझने और अनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्त्वों को आधार बनाया जा सकता है :
१. जिज्ञासा या औत्सुक्य,
२. संसारचक्र में भ्रमण करने वाले आत्मा का स्वरूप,
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३. संसार का स्वरूप
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४. संसार से मुक्त होने के उपाय और
५. मुक्त - अवस्था की परिकल्पना ।