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उपस्थापना
व्यक्ति और सृष्टि के सर्जक तत्त्वों की गवेषणा एक रहस्यवादी तत्त्व है और संभवतः इसीलिये चिन्तकों और शोधकों में यह विषय विवादास्पद बना रहा है । अनुभव के माध्यम से किसी सत्य और परम आराध्य को खोजना इसकी मूलप्रवृत्ति रही है । इस मूलप्रवृत्ति की परिपूर्ति में साधक की जिज्ञासा और तर्कप्रधान बुद्धि विशेष योगदान देती है । यहीं से दर्शन का जन्म होता है ।
इसमें साधक स्वयं के मूल रूप में केन्द्रित साध्य की प्राप्ति का सुनिश्चित लक्ष्य निर्मित कर लेता है । साध्य की प्राप्ति काल में व्यक्तित्त्व का निर्माण होता है और इस व्यक्तित्त्व की सर्जना में अध्यात्म चेतना का प्रमुख हाथ रहता है।
मानव स्वभावतया सृष्टि के रहस्य को जानने का तीव्र इच्छुक रहता है। उसके मन में सदैव यह जिज्ञासा बनी रहती है कि इस सृष्टि का रचयिता कौन है? शरीर का निर्माण कैसे होता है ? शरीर के अन्दर वह कौन सी शक्ति है, जिसके अस्तित्व से उसमें स्पंदन होता है और जिसके अभाव में उस स्पंदन का लोप हो जाता है ? यदि इस शक्ति को आत्मा या ब्रह्म कहा जाये तो वह नित्य है अथवा अनित्य ? उसके नित्यत्व अथवा अनित्यत्व की स्थिति में कर्म का क्या सम्बन्ध है और कर्मो से मुक्ति पाने पर उस शक्ति का क्या स्वरूप है ? रहस्यवाद के ये प्रश्नचिन्ह हैं और इन प्रश्न चिन्हों का समाधान जैन-सिद्धान्त में अत्यन्त सुलझे और सरल ढंग से अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर किया गया है।