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रहस्य भावना एक विश्लेषण
157 प्रकाश, साहित्यदर्पण आदि प्राचीन काव्य ग्रन्थों में इसका गम्भीर विवेचन किया गया है।
जहां तक जैन साहित्य का प्रश्न है, उसमें रहस्य शब्द का प्रयोग अन्तराय कर्म के अर्थ में हुआ है । धवलाकार ने इसी अर्थ को 'रहस्यमंतराय' कहकर स्पष्ट किया है । रहस्य शब्द का यह अर्थ कहां से आया है यह गुत्थी अभी तक सुलझ नहीं सकी । सभ्भव है, अन्तराय कर्म की विशेषता के सन्दर्भ में रहस्य शब्द ही अन्तराय कर्म का पर्यायार्थक मान लिया गया हो । जो भी हो, इस अर्थ को उत्रकालीन आचार्यो ने विशेष महत्त्व नहीं दिया, अन्यथा उसका प्रयोग लोकप्रिय हो जाता । दूसरी ओर जैनाचार्यो ने रहस्य शब्द के इर्दगिर्द घूमने वाले अर्थ को अधिक समेटा है । गुह्य साधना में उन्होनें रहस्य शब्द का प्रयोग भले ही प्रथमतः न किया हो पर उसमें सन्निहित आध्यात्मिक वस्तुनिष्ठता को तो मूल भावना के रूप में स्वीकार किया ही है । हमें इस संदर्भ में आदि तीर्थकर ऋषभदेव को प्रथम रहस्यवादी व्यक्तित्व स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होगा। उनकी ही परम्परा का प्रवर्तन करने वाले नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर जेसै ऐतिहासिक महापुरुषों का नाम भी आचार्य कुंदकुंद, कार्तिकेय, पूज्यपाद, योगेन्दु, मुनि रामसिंह, बनारसीदास, आनन्दघन आदि जैसे साधकों का नाम किसी भी तरह भुलाया नहीं जा सकता। उनके ग्रन्थों में आध्यात्मिक तत्त्व को रहस्य से जोड़ दिया गया है जहाँ जैन रहस्य साधना का स्पष्ट विश्लेषण दिखाई देता है । जैन साधक टोडरमल की रहस्यपूर्ण चिट्ठी इसी अर्थ को व्यक्त करती है । इस चिट्ठी में उन्होंने अपने कतिपय मित्रों को आध्यात्मिकता का संदेश दिया है । इसी तरह पाइयलच्छिनाममाला, सुपासणाहचरिउ तथा हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण आदि ग्रन्थों में भी रहस्य शब्द को गुह्य अथवा अध्यात्म की