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________________ 158 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना परिधि में मढ दिया है । अतएव इस आधार पर यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि जैन साधकों ने भी रहस्य के दर्शन को अध्यात्म से अछूता नहीं रखा । उन्होंने तो वस्तुतः यथासमय रहस्य शब्द का प्रयोग अध्यात्म के अर्थ में ही किया है । अध्यात्म का अर्थ है आत्मा को अर्थात् स्वयं को अधिश्रित करके वर्तमान में होना । (आत्मानमधिश्रिन्य वर्तमानो अध्यात्मम्-अष्टसहस्री, कारिका-२)। इसमें आत्मा को केन्द्रित कर परमात्मपद की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया जाता है। प्राचीन अर्धमागधी जैनागमों में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इस रहस्य तत्त्व की भावानूभुति वासना रूप भाव के माध्यम से भावक के मानस पटल पर अंकित होती है । इसी को साक्षात्कार तभी हो पाता है ,जब मिथ्यात्व या अज्ञान का आवरण साधक की आत्मा से हट जाये। तब इसको रहस्यानुभूति कहा जायगा। भावानुभूति काव्यात्मक है और रहस्यानुभूति साधनात्मक या दार्शनिक है। एक का सम्बन्ध रस से है और दूसरे की परिधि आध्यात्मिक है । प्रथम प्रक्रिया विचार से प्रारम्भ होती है और भावना से होती हुई अनुभूति में विराम लेती है । द्वितीय प्रक्रिया अनुभूति से अपनी यात्रा प्रारम्भ करती है और भावना से होती हुई विचार में गर्भित हो जाती है। प्रथम को विषय प्रधान (Objective) कहा जाता है और द्वितीय को आत्मप्रधान या भावात्मक (Subjective) माना जा सकता है। भावना को न्याय प्रणाली में चिन्ता वेदान्त में निदिध्यासन, योग में ध्यान और काव्य के क्षेत्र में साधारणीकरण व्यापार, व्यापना, आदि के रूप में चित्रित किया गया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भावना साधन मात्र है पर काव्य के क्षेत्र में वह साधन और साध्य दोनों है। दूसरे
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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