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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
मार्ग को अपनी परम्परा के अनुकुल कोई नाम दे दिया जाता है, जिसे हम अपनी भाषा में धर्म कहने लगते हैं। रहस्यभावना के साथ ही उस धर्म का अविनाभाव सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है और कालान्तर में भिन्न-भिन्न धर्म और सम्प्रदायों की सीमा मे उसे बांध दिया जाता है ।
'रहस्य' शब्द 'रहस्' पर आधारित है । रहस् शब्द रह् त्यागार्थक धातु से असुन् प्रत्यय लगाने पर बनता है ।' तदनंतर यत् प्रत्यय जोडने पर रहस्य शब्द निर्मित होता है । उसका विग्रह होगा रहस्यम् - रहसि भवम् रहस्यम् ।' अर्थात् रहस्य एक ऐसी मानसिक प्रतीति अथवा अनुभूति है जिसमें साधक ज्ञेय वस्तु के अतिरिक्त ज्ञेयान्तर वस्तुओं की वासना से असंपृक्त हो जाता है ।
'रहस्' शब्द का द्वितीय अर्थ विविक्त, विजन, छन्न, निःशलाक, रह, उपांशु और एकान्त है ।' और विजन में होने वाले को रहस्य कहते हैं । (रहसि भवम् रहस्यम्) । गुह्य अर्थ में भी रहस्य शब्द का विशेष प्रयोग हुआ है । श्रीमद्भागवद् गीता और उपनिषदों में रहस्य शब्द का विशेष प्रयोग दिखाई देता है । वहां एकान्त अर्थ में 'योगी यो जीत सततमात्मानं रहसि स्थितम्', मर्म अर्थ में 'भक्तो सि सखा चेति रहस्यम् हवे तदमुत्त' और गुह्यार्थ में 'गुह्ययाद् गुह्यतरं (१८.६३), 'परम गुह्यं' (१८.३८) आदि की अभिव्यक्ति हुई है। इस रहस्य को आध्यात्मिक क्षेत्र में अनुभूति के रूप में और काव्यात्मक क्षेत्र रस के रूप में प्रस्फुटित किया गया है । रहस्य के उक्त दोनों क्षेत्रों के मर्मज्ञों ने स्वानुभूति को चिदानन्द चैतन्य अथवा ब्रह्मानंद सहोदर नाम समर्पित किया है। रस निष्पति के सन्दर्भ में ध्वन्यालोक, काव्य