________________
152
हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना वंदौ माता सिंहवाहिनी, जातें सुमति होय अति वीर, .वंदौ मुनियन जे गुनधम्म, नवरस महिमा उदति न कर्म।
छन्दोविधान की दृष्टि से भी हिन्दी जैन कवि स्मरणीय हैं। कविवर वृन्दावनदास ने अत्यन्त सरल भाषा में लघु-गुरु को पहचानने की प्रक्रिया बतायी है
लघु की रेखा सरल है, गुरु की रेखा बंक। इहि क्रम सी गुरुलघु परखि, पढ़ियों छन्द निशंक।। कहुं-कहुं सुकवि प्रबन्ध महं, लघु को गुरु कह देत। गुरु हूँ को लघु कहत है, समझत सकवि सुचेत।।
आठों गणों के नाम, स्वामी और फल का निरूपण कवि ने एक ही सवैये में कर दिया है - मगन तिगुरु मूलच्छि लहावत नगन तिलघु सुर शुभ फल देत। मगन आदि गुरु इन्दु सुजस, लघु आदि मगन जल वृद्धि करेत।। रमन मध्य लघु, अगिन मृत्यु, गुरुमध्य जगन रवि रोग निकेत। सगत अन्त गुरु, वायु भ्रमन तगनत लघु नव शून्य समेत।। ___इसी प्रकार बनारसीदास की नाममाला, भवगतीदास की अनेकार्थ नाममाला आदि कोश ग्रन्थ भी उल्लेखनीय हैं। यह कोश साहित्य संस्कृत कोश साहित्य से प्रभावित है। १५. मरु-गुर्जर हिन्दी जैन साहित्यिक प्रवृत्तियां
___ मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्यिक प्रवृत्तियों की ओर स्वतन्त्र रूप से दृष्टिपात करना आवश्यक है। मरु-गुर्जर या पुरानी हिन्दी का विकास शौरसेनी या पश्चिमी अपभ्रंश से हुआ और महाराष्ट्री का उसपर विशेष प्रभाव पड़ा। इसे हम सन्धिकालीन साहित्यिक भाषा के अर्थ में प्रयुक्त कर