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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां कविवर बनारसीदास ने काव्य रसों की संख्या ९ मानी हैं - श्रृंगार, वीर, करुण, हास्य, रौद्र, वीभत्स, भयानक, अद्भुत और शान्त। इनमें शान्त रस को रसनिकौ नायक' कहा है। उसका निवास वैराग्य में बताया है - माया की अरुचिता में शान्त रस मानिये।१० उन्होंने इन रसों के पारमार्थिक स्थानों पर भी विचार किया है। -
गुन विचार सिंगार, वीर उद्यम उदार रुख। करुना समरस रीति, हास हिरदै उछाह सुख।। अष्ट करम दल मजल, रूद्र वरतै तिहि थानक। तन विलेछ वीभत्छ द्वन्द मुख दसा भयानक।। अद्भुत अनंत बल चितवन, सांत सहज वाग धुव। नवरसविलास परगास तब, जब सुबोध घट प्रगट हुव।।"
रस के समान अलंकार पर भी हिन्दी जैन कवियों ने विचार किया है। इस संदर्भ में कुंवरकुशल का लखपतजयसिंधु और आमचन्द्र का अलंकार आशय मचरी उल्लेखनीय हैं। यहां रस, वस्तु और अलंकार को स्पष्ट किया गया है। अलंकार के कारण वस्तु का चित्रण रमणीय बनता है। उससे रस उपकृत होता है और भवों की रमणीयता में निखार आता है। परिमल का श्रीपालचरित्र इस दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण है। इसका निम्न पद्य देखिये
प्रथमहि लीजै ऊँ अकारु, जो भव दुख विनासन हारु। सिद्धचक्रव्रत केवलरिद्धि, गुन अनंत फल जाकी सिद्धि। प्रनमौ परम सिद्ध गुरु सोइ, अन्य समल सब मंगल होइ, सिंधपुरी जाकौ सुभ थान, सिंध पुरी सुभ अनंत निधान। वंदौ जिनशासन के धम्म, आप साय नासे अधकर्म, छंदौ गुरु जे गुण के मूर, जिनते होय ग्यान को छूर।