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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
153 सकते हैं जिसकी कालावधि लगभग १३ वीं शताब्दी से प्रारम्भ होती है। इसे मरु-गुर्जर का आदिकाल कहा जाता है । यह काल १५-१६ वीं शताब्दी तक आधुनिक आर्य भाषाओं के उदयकाल तक माना जाता है जिस पर शौरसेनी अपभ्रंश का प्रभाव अधिक रहा है। इसके बाद १६वीं से १९ वीं तक हम इसे और भी विस्तृत रूप में देख पाते हैं। जहां आधुनिक हिन्दी भाषा का रूप दिखाई देने लगता है। इसे मरु गुर्जर का मध्यकाल कहा जाता है। कुल मिलाकर हम इन दोनों भागों को मध्यकाल में रख सकते हैं। प्रारम्भ में इसमें दिगम्बर-श्वेताम्बर जैसा भेद नहीं था पर १५-१६ वीं शताब्दी का अधिकांश मरु-गुर्जर जैन साहित्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा लिखित है। इसमें चरित्त, प्रबन्ध, संधि, चडपइ, रास, पवाडो, आख्यान, पुराण, रूपक, बेलि, संझाय, विवाहलउ, चर्चरी, फागु, बारहमासा, चौमासा, कूट या उलटवास, अन्तरालाय, मुकरी, प्रहेलिका, गजल आदि विविध प्रवृत्तियां प्रवाहित होती रही हैं जो भक्ति से अधिक संबद्ध हैं। इसमें शान्तरस के माध्यम से आत्मानुभूति को शब्दों में उतारा गया है। जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण वहां दिखाई देता है जिसमें संसार की नश्वरता, समत्व दृष्टि, अहिंसा, जीवदया, नैतिक संयम आदि जैसे जैन तत्त्वों का सुन्दर प्रतिबिम्बन हुआ है। निष्कल और सकल भक्तिधारा प्रवाहित होती हुई दिखाई देती है। __मरु-गुर्जर जैन साहित्य की इन प्रवृत्तियों को हमने यथास्थान रेखांकित किया है। फिर भी संक्षेप में उनका उल्लेख यहां किया जा सकता है। उदाहरणार्थ आचार्य जिनरत्नसूरि (१२-१३वीं शती) का उपदेशरसायनरास और कालस्वरूपकुलक, श्रावक जगडूका सम्यक्त्व माइचउपइ, रत्नसिंह सूरि की अन्तरंग संधि, विजयसेन सूरि का रेवंतगिरि रास, शालिभद्रसूरि का भरतेश्वर बाहुबलिरास, जिनप्रभ सूरि की पद्मावती चउपई, जयशेखरसूरि का नेमिनाथ फागु, राजशेखरसूरि का नेमिनाथ फागु, कुशलहर्ष का नेमिनाथ स्तवन,