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________________ 148 हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना चेतन तू तिहूँकाल अकेला। नदी नाव संजोग मिलै ज्यौ, त्यौं कुटुम्ब का मेला ।।चेतना।। यह संसार अपार रूप सब, ज्यौ पट पेखन खेला। सुख सम्पत्ति शरीर जल बुदबुद, विनशत नाहीं बेला।।चेतन।। मोह मगन अति मगन भूलत, परी तोहि गलजेला। मैं मैं करत चहूँ गति डोलत, बोलत जैसे छेला ।।चेतन।। कहत बनारसि मिथ्यामत तजि, होय सगुरु का चेला। तासवचन परतीत, आनयि, होइराहज सुरझेला।।चेतना।। उपाध्याय यशोविजय के निम्न गीति पद को देखिए जिसे भक्तिभाव के समर्थ कवि सूर, तुलसी, नन्ददास, मीरा, और सुन्दरदास आदि के पदों के समकक्ष रखा जा सकता है - भजन बिनु जीवित जैसे प्रेत, मलिन मन्द मति घर-घर डोलत, उदर भरन के हेत, दुर्मुख वचन बकत नित निन्दा, सज्जनसकलदुख देत। कबहुँ पापको पावत पैसो, गाढ़े धूरि में देत, गुरु ब्रह्मन अबुत जन सज्जन, जात न कवण निकेत। सेवा नहीं प्रभुतेरी कबहुं, भुवन नील को खेत। (सं० मुनि श्री कीर्तियश विजय - गुर्जरसाहित्यसंग्रह - १, बम्बई) इस संदर्भ में जैनेतर गीति काव्य परम्परा पर जैन गीति परम्परा का प्रभाव भी अन्वेषणीय है। जैन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी गीतिकाव्यों ने तो जैनेतर गीतिकाव्यों को प्रभावित किया ही है, तमिल और कन्नड जैसी प्राचीन दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी जैन कवियों और आचार्यों ने प्रभूत मात्रा में गीतिकाव्यों का सृजन किया है और उनका उनपर प्रभाव भी पड़ा है।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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