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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां उपर्युक्त गीत अथवा पद मे से कतिपय पदों की सरसता उल्लेखनीय है। अधिकांश पदों में आवश्यक सभी तत्त्व निहित हैं। संगीतात्मकता की दृष्टि से भैया भगवतीदास का निम्न पद कितना मधुर है। इसमें शरीर को परदेशी के रूप में दर्शाकर यथार्थता का चित्रण बडी कुशलता से किया है
कहा परदेशी को पतियारो। मनमाने तब चलै पंथ को, सांझ गिनै न सकारौ । सबै कुटुम्ब छांड़ इतही पुनि, त्याग चलै तन प्यारौ। दूर दिशावर चलत आप ही, कौउ न रोकन हारौ।। कोऊ प्रीति करो किन कोटिक, अन्त होयगा न्यारौ। धन सौं राचि धरम सौ भूलत, झूलत मोह मंझारौ। इहि विधि काल अननत गमायो, पायों नहिं भव पारौ।। सांचै सुखसो विमुख होत हो, भ्रम मदिरा मतवारो। चेतहु चेत सुनहु रे भइया, आप ही आप संभारौ।।
इसी प्रकार आत्माभिव्यक्ति का तत्त्व कवि दौलतराम के निम्न पद में अभिव्यंजित है -
मेरौ मन ऐसी खेलत होरी । मन मिरदंगसाज करि तयारी, तन को तमूरा बनोरी। सुमति सुरंग सारंगी बजाई, ताल दोउ करजोरी। राग पांचों पद कोरी।।मेरो मन।। समकितिरूप नीर भी झारी, करुना केशर घौरी। ज्ञानमई लेकर पिचकारी, दोउ कर माहिं सम्होरी। इन्द्री पांचौ सखि बोरी। मेरो मन ।।२।।
कविवर बनारसीदास के इस पद में भाव और अभिव्यंजना का कितना समन्वय है -