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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
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जैन कवियों में ये गीतात्मक तत्त्व अधिक विकसित हुए हैं। बनारसीदास, जिनप्रभसूरि, आनन्दतिलक, वृन्दावन, उदयराज, जिनराजसूरि, भूधरदास, द्यानतराय, देवीदास, भगवतीदास, विनयसागर, अनन्दघन, यशोविजय आदि कवि इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय हैं -
म्हारे प्रगटे देव निरंजन (बनारसीदास) पिया तुम निठुर भये क्यूँ सेसे (आनंदधन) रे मन भज - भज दीनदयाल (द्यानतराय) निजपुर में आज मची होरी (बुद्धजन ) मेरी मन ऐसी खेलत होरी (दौलतराम ) भगवंत भजन क्यों भूला रे (भूधरदास) मुनि ठगनी माया, तैं सब जग ठग खया (भूधरदास) रे मन! कर सदा संतोष (बनारसीदास) सतसंगति जन में सुखदायी (द्यानतराय)
इन सभी विशेषताओं को हम शताधिक हिन्दी जैन पद और गीतिकाव्यों में देख सकते हैं। उदाहरणार्थ- णमोकारफलगीत, मुक्ताफलगीत, नेमीश्वरगीत, (भ. सकलकीर्ति, सं. १४४३१४९९), बारहव्रतगीत- जीवपड़ागीत - जिणन्दगीत (ब्रह्मजिनदास, सं. १४४५ से १५२५), नेमीश्वरगीत ( चतरुमल, सं. १५७१), त्रेपनक्रियागीत (भ. भीमसेन, सं. १५२०), विजयकीर्तिगीत, टंडाणागीतनेमिनाथ वसंत (ब्रह्मबूचराज, सं. १५९१ ), नेमिनाथगीत - मल्लनाथगीत ( यशोधर, सं. १५८१), अष्टान्हिका गीत और पद ( शुभचन्द्र), सीमंधर स्वामीगीत (भ. वीरचन्द्र, सं. १५८०), वसन्तविलासगीत (सुमतिकीर्ति, सं. १६२६), पंवसहेलीपंथिगीत - उदरगीत (छीहल, सं. १५७४), पदसंग्रह (जिनदास