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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
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अनहद सबद सदा सुन रे ।। आप ही जानैं और न जानें, कान बिना सुनिये धुन रे ।। भमर गुंज सम होत निरन्तर, ता अंतर गति चितवन रे ।।
इसीलिए द्यानतराय ने सोऽहं को तीन लोक का सार कहा है । जिन साधकों के श्वासोच्छवास के साथ सदैव “सोऽहं सोऽहं” की ध्वनि होती रहती है और जो सोऽहं के अर्थ को समझकर, अजपा की साधना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं -
सोहं सोहं होत नित, सांसा उसास मझार ।
ताको अरथ विचारियै, तीन लोक में सार ।। तीन लोक में सार, घर सिव खेत निवासी ।
अष्ट कर्म सौं रहित, सहित गुण अष्ट विलासी ।। जैसा तैसो आप, थाप निहचै तजि सोहं ।
अजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं ।।
आनंदघन का भी यही मत है कि जो साधक आशाओं को मारकर अपने अंतः कारण में अजपा जाप को जगाते हैं वे चेतन मूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं। इसीलिए संत आनंदघन भी सोsहं को संसार का सार मानते हैं -
चेतन ऐसा ज्ञान विचारो ।
सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं अणु नबी या सारो ।।
इस अजपा की अनहद ध्वनि उत्पन्न होने पर आनंद के मेघ की झड़ी लग जाती है और जीवात्मा सौभाग्यवती नारी के सदृश्य भावविभोर हो उठती है -