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________________ हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना प्रेम का भी सरल प्रवाह उसकी अभिव्यकित के निर्झर से झरता हुआ दिखाई देता है इन सब तत्त्वों के मिलन से जैन-साधकों का रहस्य परम रहस्य बन जाता है जो गीतिकाव्य की आत्मा है । 142 गीति काव्य में नामस्मरण और ध्यान का विशेष महत्त्व है। उनसे गेयात्मक तत्त्व में सघनता आती है। इसलिए जैन साधकों ने नाम सुमिरन और अजपा जाप को अपनी सहज साधना का विषय बनाया है। साधारण रूप से परमात्मा और तीर्थंकरों का नाम लेना सुमिरन है तथा माला लेकर उनके नाम का जप करना भी सुमिरन है। डॉ. पीताम्बर दत्त बड्थवाल ने सुमिरन के जो तीन भेद माने हैं उन्हें जैन साधकों ने अपनी साधना में अपनाया है। उन्होंने बाह्यसाधन का खंडनकर अन्तःसाधना पर बल दिया है। व्यवहार नय की दृष्टि से जाप करना अनुचित नहीं है पर निश्चय नय की दृष्टि से उसे बाह्य क्रिया माना है । तभी तो द्यानतराय जी ऐसे सुमिरन को महत्त्व देते हैं जिसमें - औसो सुमरन करिये रे भाई। पवन थंमै मन कितहु न जाई । । परमेसुर सौं साचौं रहिजै । लोक रंजना भय तजि दीजै ।। यम अरु नियम दोऊ विधि धारौं । आसन प्राणायाम सामरौ ।। प्रत्याहार धारना कीजै । ध्यान समाधि महारस वीजै ।। अनहद को ध्यान की सर्वोच्च अवस्था कहा जा सकता है जहां साधक अन्तरतम में प्रवेश कर राग-द्वेषादिक विकारी भावों से शून्य हो जाता है। वहां शब्द अतीत हो जाते हैं और अन्त में आत्मा का ही भाव शेष रह जाता है। कान भी अपना कार्य करना बंद कर देता है। केवल भ्रमरगुंजन-सा शब्द कानों में गूंजता रहता है ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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