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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां 141 कंगार एवं वात्सल्य का उत्कर्ष दिखाया और मधुरा भक्ति के चित्रण में विरहिणी गोपियों के माध्यम से संयोग और विप्रलम्भ की प्राय:सभी दशाओं का वर्णन किया और इसी क्रम में नख-शिख एवं उद्दीपक प्रकृति का विस्तृत विवेचन किया जिस पर थेर-थेरी गाथा तथा प्राकृत अपभ्रंश काव्यों का प्रभाव दिखाई देता है।
गीति काव्य का सम्बन्ध आध्यात्मिक साधना से भी है। आध्यात्मिक भावना के बाधक तत्त्वों को दूरकर साधक, साधक तत्त्वों को प्राप्त करता है और उनमें रमण करते हुए एक ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है जब उसके मन में संसार से वितृष्णा और वैराग्य का भाव जाग्रत हो जाता है। फलतः वह सद्गुरु की प्रेरणा से आत्मा की विशुद्धावस्था में पहुंच जाता है। इस अवस्था में साधक की आत्मा परमात्मा से साक्षात्कार करने के लिए आतुर हो उठती है और उस साक्षात्कार की अभिव्यक्ति के लिए वह रूपक, आध्यात्मिक विवाह, आध्यात्मिक होली, फागु आदि साहित्यिक विधाओं का अवलम्बन खोज लेती है। मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्यों में इन विधाओं का विशेष उपयोग हुआ है। उसमें साधनात्मक और भावनात्मक दोनों प्रकार की रहस्य साधनाओं के दिग्दर्शन होते हैं। साधना की चिरन्तनता, मार्मिकता संवेदनशीलता, स्वसंवेदनता, भेदविज्ञान आदि तत्त्वों ने साधक को निरंजन, निराकार, परम वीतराग आदि रूपों में पगे हुए साध्य को प्राप्त करने का मार्ग प्रस्तुत किया है और चिदानन्द चैतन्यमय ब्रह्मानन्द रस का खूब पान कराया है। साथ ही परमात्मा को अलख, अगम, निराकार, अध्यात्मगम्य, परब्रह्म, ज्ञानमय, चिद्रूप, निरंजन, अनक्षर, अशरीरी, गुरुगुसाई, अगूढ़ आदि शब्दों का प्रयोग कर उसे रहस्यमय बना दिया है। दाम्पत्य मूलक