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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना केश के मुंडाये कहा भेष के बनाये कहा,
जीवन के आये कहा, जराहू न खैहे रे। भ्रम को विलास कहा, दुर्जन में वास कहा,
आतम प्रकाश विन पीछे पछितैहे रे।। इसी तरह विनयचन्द्र सूरि (१४ वीं शती) की नेमिनाथ चतुष्पादिका का फाल्गुन वर्णन देखिए जो जायसी के वियोग वर्णन की भांति अत्यन्त मार्मिक बन पडा है - फागुन वागुणि पन्न पडंति, राजल दुरिक कि तरु रोयति। गब्भि भलिवि हउँ काइन मूय, भणइ विहंगल धारणि धूप ।।२३।। १३. गीति काव्य
हिन्दी का भक्तिकाल भक्ति भावनाओं का युग था। सामाजिक दायित्व के प्रति इतनी प्रतिबद्धता नहीं थी। इस काल के भक्त कवि ईश्वरोन्मुखी अधिक रहे। फलतः आध्यात्मिक रहस्यवाद पनपा, जिस पर स्पष्टतः अपभ्रंश मुक्तक काव्यों का प्रभाव था। यहीं से हिन्दी गीतिकाव्य का विकास हुआ । हिन्दी के पहले गीतिकार मैथिल कवि विद्यापति थे, जिनके काव्य में गीतिकाव्य की लगभग सभी विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं। उनके बाद आचार्य वल्लभ और आचार्य विट्ठल ने अष्टछाप की स्थापना की और गीतिकाव्य परम्परा का विकास किया। इन अष्टछाप कवियों के पूर्ववर्ती निर्गुणियाँ संतों (नामदेव, कबीर, नानक, दादू, दयाल, रैदास आदि) पर अपभ्रंश के योगीन्दु और मुनि राम सिंह आदि संत कवियों के मुक्तक काव्यों का प्रभाव देखा जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि अष्टछाप के कवियों ने