SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 129 मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां मोहसो है फोजदार क्रोध सो है कौतवार, __लोभ सो वजीर जहां लूटिवे को रह्यो है।। उदैको जु काजी माने, मान को अदल जाने, कामसेवा कानवीस आइ वाको कह्यो है। ऐसी राजधानी में अपने गुण भूल गयौ, सुधि जब आई तवै ज्ञान आय गयो है।।२९।। भेदविज्ञान के महत्त्व को अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से कविवर बनारसीदास ने नाटक समयसार में स्पष्ट करने का जो प्रयत्न किया है वह स्पृहणीय है - जैसे रजसोधा रज सोधिमै दरब काढे, पावक कनक काढि दाहत उपलकौं। पंक के गरभ मैं ज्यौं डारिये कुतलफल, नीर करै उज्जवल नितारि डारै मचलकौ।। दधि को मथैया मथि काढै जैसे माखनकौ, राजहंस जैसे दूध पीवै त्यागि जलकौ। तैसें ग्यानवंत भेदग्यानकी सकति साधि, वेदै निज संपति उछैदै पदल कौ॥१॥ ९. स्तवन पूजा और जयमाल साहित्य आध्यात्मिक सावन पूजा और जयमाल का अपना महत्त्व है । साधक रहस्य की प्राप्ति के लिए इष्टदेव की स्तुति और पूजा करता है । भक्ति के सरस प्रवाह में उसके रागादिक विकार प्रशान्त होने लगते हैं और साधक शुभोपयोग से शुद्धोपयोग की और बढने लगता है । पंचपरमेष्ठियों का स्तवन, तीर्थकरों की पूजा और उनकी जयमाला तथा आरती साधना का पथ निर्माण करते हैं । इस साहित्य विधा की
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy