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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना १५६२), मोती कम्पासिया संवाद, उद्यम कर्म संवाद, समकितशील संवाद, केसिगोतम संवाद, मनज्ञान संग्राम, सुमति-कुमति का झगड़ा, अंजना सुन्दरी संवाद उद्यम कर्म संवाद, कपणनारी संवाद, पंचेन्द्रिय संवाद, रावण मन्दोदरी संवाद, ज्ञान दर्शन चारित्र संवाद, जसवंतसूरि का लोचन काजल संवाद (१७ वीं शती) आदि बीसों रचनाएँ हैं जिनमें रहस्यात्मकता के तत्त्व इतने अधिक मुखरित हुए हैं कि संवाद गौण हो गये हैं।
इन आध्यात्मिक काव्यों में कवियों ने जैन सिद्धान्तों को सरस भाषा में प्रस्तुत किया है। इन सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने में एक और जहाँ दार्शनिक छटा दिखाई देती है वहीं काव्यात्मक भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय भी मिलता है। विलास काव्य इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। कवि बनारसीदास ने ‘परमार्थहिंडोलना' में आत्मतत्त्व का विवेचन काव्यात्मक शैली में चित्रित किया है -
सहज हिंडना हरख हिडोलना, झुकत चेतनराव। जहां धर्म कर्म संवेग उपजत, रस स्वभाव ।। जहं सुमन रूप अनूप मंदिर, सूरुचि भूमि सुरंग। तहं ज्ञान दर्शन खंभ अविचल, चरन आड अभंग।। मरुवा सुगुन परजाय विचरन, भौंर विमल विवेक। व्यवहार निश्चय नय सुदण्डी, सुमति पटली एक ।।१।।
कवि भगवतीदास ने ब्रह्मविलास की शतअष्टोत्तरी में विशुद्ध आत्मा कर्मो के कारण किस प्रकार अपने मूल स्वभाव को भूल जाता है इसका सरस चित्रण खींचा है - कायासी जु नगरी में चितानन्द राज करै,
मचयासी जु रानी पै मगन बहु भयौ है।