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________________ मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां 127 चन्द्रशतक भी कवि की प्रौढ रचना है जिसमें आध्यात्मिक भाव गहराई से उभरा हुआ है। एक उद्धरण देखिए - गुन सदा गुनी मांहि, गुन गुनी भिन्न नाहिं, भिन्नतो विभावता स्वभाव सदा देखिये। सोई है स्वरूप आप, आप सों न है मिताप, मोह के अभाव में स्वभाव शुद्ध देखिये। छहो द्रव्य सासते, अनादि के ही भिन्न-भिन्न, आपने स्वभाव सदा ऐसी विधि लेखिये। पांच जड़ रूप भूप चेतन सरूप एक, जानपनों सारा चन्द्र माथे यो विसेखिये। (डा० प्रेमसागर जैन हिन्दीजैनभक्ति काव्य एवं कविपृ०१२८-१३० । धर्महंस (सं. १५८०-१६१६) की संयमरत्नसूरि स्तुति में संयमहीन साधु के सम्बन्ध में बहुत अच्छा लिखा है - नवि सोभइ जिम हाथी ओ रे, दंत बिना उत्तंग, रूप वलिं करी आगलु रे, गति बिना तुरंग। चन्द्र बिना जिम रातडी रे, गंध बिना जिम फूल। मुनिवर चरित्रहीन तिम, नवि सोभइ गुणचंग, सर्वविरति तिणि सोहती, पालि मनि जिरंग। (जैन ऐतिहासिक काव्य संचय (सं० मुनि जिनविजय) रचना क्रम सं० २४ संवाद भी एक प्राचीन विधा रही है जसमें प्रश्नोत्तर के माध्यम से आध्यात्मिक जिज्ञासा का समाधान किया जाता था। नरपति (१६वीं शती) का दंतजिव्हा संवाद, सहज सुन्दर (सं १५७२) का आंख-कान संवाद, यौवन जरा संवाद जैसी आकर्षक ऐसी सरस रचनाएँ हैं जिनमें दो इन्द्रियों में संवाद होता है जिनकी परिणत अध्यात्म में होती है। अन्य रचनाओं में रावण मन्दोदरी संवाद (सं
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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