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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
चित चुनड़ी ए जे धर से मनवंछित नेम सुख कर से, संसार सागर ते तरसे, पुण्यरत्न नो भंडार भरसे । सुरि रत्नकीर्ति जसकारी, शुभ धर्मराशि गुणधारी, नरनारि चुनड़ी गावें ब्रह्मजयसागर कहें भावें । जिनराजसूरि के वैराग्यगीत की कुछ पंक्तियां देखिए सुणि वेहेनी पीउडो परदेसी आज कइ कालि चलेसि रे, कहो कुण मोरी सार करेली, छिन छिन विरह दहेसी रे । विलुद्धो अरु मदमातो काल न जाण्यो जातो रे ।
अचिं प्रीयाणो आव्यो तातो रही न सके रंग रातो रे । सुण० बाट विशम कोइ संग न आवइ प्रिउ अकेलो जावे रे, विणु स्वारथ कहो कुण पहोचावे, आप कीया फल पावेइ रे। सुण० (जैन गुर्जर कविओ भाग ३ पृ० ३७५ (द्वितीय संस्करण)
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त्रिभुवनचन्द्र के अनित्यपंचाशक (सं. १६५०) में छप्पक और सवैया छन्दों का प्रयोग किया है जिनमें वैराग्य और अध्यात्म के भाव कूट-कूट कर भरे हुए हैं। कुछ पंक्तियां देखिए
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जहाँ है संयोग तहां होत है वियोग सही, जहाँ है जनम तहाँ मरण को वास है। संपति विपति दोऊ एक ही भवन दासी, जहाँ वसै सुष तहाँ दुष को विलास है। जगत में बार-बार फिरे नाना परकार, करम अवस्था झूठी थिरता की आस है । नट कैसे भेष और और रूप होहिं तातैं, हरष न सोग ग्याता सहज उदास है।