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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां
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८. बारहमासा यद्यपि ऋतुपरक गीत है पर जैन कवियों ने इसे आध्यात्मिक सा बना लिया है। नेमिनाथ के वियोग में राजलु के बारहमास कैसे व्यतीत होते, इसका कल्पनाजन्य चित्रण बारहमासों का मुख्य विषय रहा है। पर साथ ही अध्यात्म बारहमासा, समुतिकुमति बारहमासा आदि जैसी रचनायें भी उपलब्ध होती हैं । ८. आध्यात्मिक काव्य
कतिपय आध्यात्मिक काव्य यहाँ उल्लेखनीय हैं - रत्नकीर्ति का आराधना प्रतिबोधसार ( सं १४५०), महनन्दि का पाहुड़ दोहा (सं १६००), ब्रह्मगुलाल की त्रेपनक्रिया ( सं १६६५), बनारसीदास का नाटक समयसार ( सं १६३०) और बनारसीविलास, मनोहरदास की धर्म परीक्षा ( सं १७०५), भगवतीदास का ब्रह्म विलास ( सं १७५५), विनयविजय का विनयविलास ( सं १७३९), द्यानतराय की संबोधपंचासिका तथा धर्मविलास ( सं १७८०), भूधर विलास का भूधरविलास, दीपचंद शाह के अनुभव प्रकाश आदि ( सं १७८१), देवीदास का परमानन्द विलास और पदपंकत (सं १८१२), टोडरमल की रहस्यपूर्ण चिट्ठी (सं १८११), वुधजन का बुधजनविलास, पं. भागचन्द की उपदेश सिद्धान्त माला ( सं १९०५), छत्रपत का मनमोहन पंचशती सं. १९०५ आदि ।
जयसागर (सं. १५८०-१६५५) का चुनडी गीत एक रूपक काव्य है जिसमें नेमिनाथ के वन चले जाने पर राजुल ने चारित्ररूपी चूड़ी को जिस प्रकार धारण किया, उसका वर्णन है । वह चुनड़ी नवरंगी थी। गुणों का रंग, जिनवाणी का रस, तप का तेज मिलाकर वह चूनड़ी रंगी गई । इसी चूनड़ी को ओढ़कर वह स्वर्ग गई ।