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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
इसी प्रकार 'मधुबिन्दुक चौपाई' में कवि भगवतीदास ने रूपक के माध्यम संसार का सुन्दर चित्रण किया है :
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यह संसार महावन जान । तामहिं भयभ्रम कूप समान ।। गज जिम काल फिरत निशदीस। तिहं पकरन कहुँ विस्वावीस ।। वट की जटा लटकि जो रही । सो आयुर्दा जिनवर कही ।। तिहँ जर काटत मूसा दोय । दिन अरु रैन लखहु तुम सोय ।। मांखी चूंटत ताहि शरीर । सो बहु रोगादिक की पीर ।। अजगर पस्यो कूप के बीच। सो बहु रोगादिक की पीर ।। अजगर पस्यो कूप के बीच। सो निगोद सबतैं गति बीच ।। याकी कछु मरजादा नाहिं । काल अनादि रहै इह माहिं ।। तातैं भिन्न कही इहि ठौर । चहुँगति महितैं भिन्न न और ।। चहुँदिश चारहु महाभुजंग। सो गति चार कही सखंग ।। मधु की बून्द विषै सुख जान । जिहँ सुख काज रह्यौ क्तिमान ।। ज्यों नर त्यों विषयाश्रित जीव । इह विधि संकट सहै सदीव || विद्याधर तहँ सुगुरु समान । दे उपदेश सुनावत ज्ञान ।।
इस प्रकार रूपक काव्य आध्यात्मिक चिन्तन को एक नयी दिशा प्रदान करते हैं। साधकों ने आध्यात्मिक साधनों में प्रयुक्त विविध तत्त्वों को भिन्न-भिन्न रूपकों में खोजा है और उनके माध्यम से चिन्तन की गहराई में पहुंचे हैं। इससे साधना में निखार आ गया है। रूपकों के प्रयोग के कारण भाषा में सरसता और आलंकारिकता स्वभावतः अभिव्यंजित हुई है ।