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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां ग्रसित होकर भवसागर में भ्रमण करता रहता है और किस प्रकार उससे मुक्त होता है, इस प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग को विश्लेषित कर जैन कवियों ने आत्मा की अतुल शक्ति को रूपकों के माध्यम से उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है। इस विधि से जैन तत्त्वों के निरूपण में नीरसता नाहीं आ पायी। बल्कि भाव-व्यंजना कहीं अधिक गहराई से उभर सकी है। इस दृष्टि से त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध, विद्याविलास पवाड़ा, नाटक समयसार, चेतनकर्मचरित, मधु बिन्दुक चौपई, उपशम पच्चीसिका, परमहंस चौपई, मुक्तिरमणी चूनड़ी, चेतन पुद्गल धमाल, मोहविवेक युद्ध आदि रचनायें महत्त्वपूर्ण है। रूपकों के माध्यम से विवाहलउ भी बड़े सरस रचे गये हैं।
इन रूपक काव्यों में दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा सूक्ष्म भावनाओं का सुन्दर विश्लेषण किया गया है। नाटक समयसार इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं कवि बनारसीदास ने रूपक के माध्यम से मिथ्यादृष्टि जीव की स्थिति का कितना सुन्दर चित्रण किया है यह देखते ही बनता है -
काया चित्रसारी मैं करम परजंक मारी, माया की सवारी सेज चादरि कल्पना। सैन करै चेतन अचेतना नींद लियै, मोह की मोर यहै लोचन को ढपना।। उदै बल जोर यहै स्वास की सबद घोर, विषै-सुख कारज की दौर यहै ऋपना। ऐसी मूढ़ दसा मैं मगन रहै तिहूँकाल, धावै भ्रम जाल मै न पावै रूप अपना।।१४।।