SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां सेवाराम का शान्तिनाथ पुराण (सं. १८२४) जिनेन्द्रभूषणका नेमिपुराण । ये पुराण भाव और भाषा की दृष्टि से उत्तम हैं। इस दृष्टि से कविवर भूधरदास का पार्श्व पुराण दृष्टव्य है - 111 किलकिलंत वैताल, काल कज्जल छवि सज्जहिं । मौं कराल विकराल, भाल मदगज जिमि गजहिं । । मुंडमाल गल धरहिं लाय लोयननि उरहिंजन । मुख फुलिंग फुंकरहि करहिं निर्दय धुनि हन हन ।। इहि विधि अनेक दुर्वेष धरि, कमठ जीव उपसर्ग किय। तिहुं लोक वंद जिनचन्द्र प्रति धूलि डाल निज सीस लिय ।।' हिन्दी जैन साहित्य में पौराणिक प्रबन्ध काव्य की धारा लगभग आठवीं शती से प्रारम्भ हुई और मध्यकाल आते-आते उसमें और अधिक वृद्धि हुई। कवियों ने तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों, नारायणों आदि महापुरुषों के चरितों को जीवन-निर्माण के लिए अधिक उपयोगी पाया और फलतः उन्होंने अपनी प्रतिभा को यहां प्रस्फुटित किया। यद्यपि उनमें जैनधर्म के सिद्धान्तों को स्पष्ट करने का विशेष प्रयत्न किया गया है पर उससे कथा प्रवाह में कही बाधा नहीं दिखाई देती। भावव्यंजना संवाद, घटनावर्णन, परिस्थिति संयोजन आदि सभी तत्त्व यहां सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किये गये हैं । जिन्हें आज खण्डकाव्य कहा जाता है उन्हें मध्यकाल में 'संधि' काव्य की संज्ञा दी गई। संधि वस्तुतः सर्ग के अर्थ में प्रयुक्त होता था, पर उत्तरकाल में एक सर्ग वाले खण्ड काव्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग होने लगा प्रमुख जैन संधि काव्यों में उल्लेखनीय काव्य हैं जिनप्रभसूरि का अनत्थि संधि (सं. १२९७ ) और मयणरेहा संधि, जयदेव का भावना संधि विनयचन्द का आनन्द संधि (१४ वी शती),
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy