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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
१. प्रबन्ध काव्य
प्रबन्ध काव्य के अन्तर्गत महाकाव्य और खण्डकाव्य दोनों आते हैं। यहां उनके स्वरूप का विश्लेषण करना हमारा अभीष्ट नहीं है पर इतना कथन अवश्यक है कि उनके आख्यानों का वस्तु तत्त्व पौराणिक, निजन्धरी, समसामयिक तथा कल्पित होता है। उनमें लोकतत्त्व का प्राधान्य रहता है। लोकतत्त्व गाथात्मक और कथात्मक रहता है। उनके पीछे धार्मिक अनुश्रुतियां, इतिहास और मान्यतायें छिपी रहती हैं । सृष्टि, प्रलय, वंशपरम्परा, मन्वन्तर और विशिष्ट वंशों में होने वाले महापुरुषों का चरित ये पांच विषय पौराणिक सीमा में आते हैं:
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सर्गंश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पंच लक्षणम् ।।
जैन साहित्य में प्रबन्धकाव्य की परम्परा आदिकाल से ही प्रवाहित होती रही है। जैन आचार्यो ने ६३ शलाका महापुरुषों के चित्रांकन को अपना विशेष लक्ष्य बनाया है । उनकी जीवन गाथाओं के माध्यम से कवियों ने जैनधर्म और दर्शन सम्बन्धी विचार अभिव्यक्त किये हैं। इसके बावजूद प्रबन्ध काव्य में अपेक्षित क्रमबद्धता, गतिशिलता और भावव्यंजना में किसी प्रकार की कमी नहीं आई। कवियों ने भाषा के क्षेत्र में राजस्थानी, गुजराती और ब्रजभाषा के मिश्रित रूप का प्रयोग किया है। भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से ये काव्य जायसी और तुलसी के काव्यों से हीन नहीं है बल्कि कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि जायसी और तुलसी ने प्राचीन जैन प्रबन्ध काव्यों से प्राभूत सामग्री ग्रहणकर अपनी प्रतिभा से अपने समूचे साहित्य को उन्मेषित किया है।