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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां संघवर्णन, २६. ढाल, २७. ढालिया, २८. चौढालिया, २९. छढालिया, ३०. प्रबन्ध, ३१. चरित, ३२. सम्बन्ध, ३३. बत्तासी, ३४. इक्कीसो, ३५. इकतीसो चौबीसी, ३६. बीसी, ३७. अष्टक, ३८. स्तुति, ३९. स्तवन, ४०. स्तोत्र, ४१. गीत, ४२. सज्झाय, ४३. चैत्यवंदन, ४४. देववंदन, ४५. वीनती, ४६. नमस्कार, ४७. प्रभाती, ४८. मंगल, ४९. सांझ , ५०. बधावा, ५१. गहूँली, ५२. हीयाली, ५३. आख्यान, ५४. कथा, ५५. सतक,५६. बहोत्तरी, ५७. छत्तीसी, ५८. सत्तरी, ५९. गूढा, ६०. गजल, ६१. लावणी, ६२. छंद, ६३. नीसाणी, ६४. नवरसो, ६५. प्रवहण, ६६. पारणी, ६७. वाहण, ६८. पट्टावली, ६९. गुर्वावली, ७०. हमचड़ी, ७१. हीच, ७२. मालामालिका, ७३. नाममाला, ७४. रागमाला, ७५. कुलक, ७६. पूजा, ७७. गीता, ७८. पट्टाभिषेक, ७९. निर्वाण, ८०. संयमश्री ८१. विवाह वर्णन, ८२. भास, ८३. पद, ८४. मंजरी, ८५. रसावलो, ८६. रसायन, ८७. रसलहरी, ८८. चंद्रावला, ८९. दीपक, ९०. प्रदीपिका, ९१. फुलडा, ९२. जोड़, ९३. परिक्रम, ९४. कल्पलता, ९५. लेख, ९६. विरह, ९७. मूंदड़ी, ९८. सत, ९९. प्रकाश, १००. होरी, १०१. तरंग, १०२. तरंगिणी, १०३. चौक, १०४. हुँडी, १०५. हरण, १०६. विलास, १०७. गरबा, १०८. बोली, १०९. अमृतध्वनि, ११०. हालरियो, १११. रसोई, ११२. कड़ा, ११३. झूलणा, ११४. जकड़ी, ११५. दोहा, ११६. कुंडलिया, ११७. छप्पय आदि।
मध्यकालीन जैन काव्य की इन प्रवृत्तियों को समीक्षात्मक दृष्टिकोण से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी प्रवृत्तियां मूलतः आध्यात्मिक उद्देश्य को लेकर प्रस्तुत हुई हैं जहां आध्यात्मिक उद्देश्य प्रधान हो जाता है, वहां स्वभावतः कवि की लेखनी आलंकारिक न होकर स्वाभाविक और सात्विक हो जाती है। उसका मूल उत्स रहस्यात्मक अनुभव और भक्ति रहा है।