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________________ आदिकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियाँ दिये जाने के कारण गीतों को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया और गीतिकाव्य में भावों की उदात्तता होने पर भी उसमें सन्निहित ऐकान्तिकता उसे सामाजिक नहीं बना पाई। इसमें वैयक्तिक अनुभूति की गहराई का उद्घाटन होता है, इसलिए प्रबन्ध काव्य जैसा सामाजिक और सामूहिक व्यक्तित्त्व का पक्षधर गीतिकाव्य नहीं हो पाया। यही कारण है कि गीतिकाव्य का प्रचार अपेक्षाकृत कम रहा है। 95 गीति या प्रगीति काव्य को मुक्तक काव्य भी कहा जाता है। मुक्तक काव्युत्पत्तिपरक तात्पर्य है - मुच्यतेऽस्येति मुक्तम् अर्थात् जो काव्य अर्थ पर्यवसान के लिए परमुखापेक्षी न हो, वह मुक्तक कहलाता है। तदनुसार यों कहा जा सकता है कि जो काव्य पूर्वापर सम्बन्ध की अपेक्षा न रखता हो, स्वयं में स्वतंत्र हो तथा पूर्ण अर्थ देने में सक्षम हो वह मुक्तक काव्य है । इसीलिए उसकी ये परिभाषाएँ की गई हैं - मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षमः सताम् (पुराणकार ) मुक्तकं वाक्यान्तर - निरपेक्षो यः श्लोकः (काव्यादर्श) पूर्वापर-निरपेक्षाति येन रसचर्वणा क्रियते तत्मुक्तम् (अभिनव गुप्त ) विना कृतं विरहितं व्यवच्छिन्नं विशेषितं । भिन्नं स्यादथ निर्व्यूहे मुक्तं यो वातिशोभनः । । शब्दकल्पद्रुम इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि मुक्तक या प्रगीतिकाव्य एक रमणीय सरस काव्य है, जिसमें जीवनदर्शन और अनुभूतिपरक तथ्यों का समावेश रहता है। इसमें समास शैली में भावाभिव्यक्ति होती है । शब्द और अर्थ का जो चमत्कार मुक्तक काव्य में रहता है, वह प्रबन्ध में नहीं दिखेगा। उसका क्षेत्र भले ही संकीर्ण हो, पर रसात्मकता और चमत्कृति तथा जीवन की विधायक शक्ति उसमें बेजोड़ होती है ।
SR No.022771
Book TitleHindi Jain Sahityame Rahasya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushplata Jain
PublisherSanmati Prachya Shodh Samsthan
Publication Year2008
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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