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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना
और प्रकृति चित्रण उत्तरकालीन हिन्दी कवियों के लिए उपजीवक सिद्ध हुये हैं। जायसी और तुलसी पर उनका अमिट प्रभाव दृष्टव्य है। छन्दविधान, काव्य और कथानक रूढ़ियों के क्षेत्र में यह प्रभाव अधिक देखा जाता है। प्रभाव ही क्या प्रायः समूचा हिन्दी जैन साहित्य अपभ्रंश साहित्य की रूढ़ियों पर लिखा गया है ।
आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में गीति काव्य परम्परा
गीतिकाव्य की एक अजस्र परम्परा है, जिसका सम्बन्ध भावों की मनोरम कल्पना और उनकी सूक्ष्मतम अनुभूति से रहा है। सौन्दर्य की संश्लिष्ट संकल्पना और भावप्रवणता की सरिता में प्रकृति और पुरुष को एक स्वर में बाँधने का जो काम प्रगीति काव्य ने किया है, वह अपने आप में अनूठा है। कालिदास का 'विचिन्त्य गीतक्षममर्थजातम्' वाक्य इसी महत्ता को द्योतित करता है। इसमें सत्, चित् और आनन्द की अभिव्यक्ति, मनोहारी संगीतात्मक लय में होती है। इसलिए गेयता उसका एक विशिष्ट गुण है। इस गुण में भावाद्रता संक्षिप्तता, सहज अन्तःप्रेरणा और स्वाभाविक अभिव्यक्ति जैसी विशेषताएँ भी संन्निहित रहती हैं।
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आदिकालीन हिन्दी जैन साहित्य में गीति परम्परा को समझने के लिए हम संक्षेप में समूचे भारतीय साहित्य पर एक दृष्टिपात कर लें । क्योंकि उसका प्रभाव संस्कृत-प्राकृत जैन कवियों पर पड़ा है और वही परम्परा हिन्दी जैन कवियों ने आकलित की है ।
भारतीय साहित्य शास्त्र में काव्य के दो भेद किये गये हैं - प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य । प्रबन्ध काव्य में प्रबन्ध को महत्ता